बदलो लोग चुकावत ऐसहि होति शक्ति जिहि।
सावधान सब लोग रहत याही सों हित तिहि॥३९३॥
सांझ सकारे दुपहर घुटत भंग अधिकाधिक।
सिल लोढ़न की मची खटाखट रहत चार दिक॥३९४॥
धमकत ढोल रहत अस फाग मच्यो निसि बासर।
फटत ढोल बहु ढोलकिहन की अंगुरिन तर तर॥३९५॥
बहत रुधिर पै तऊ न वे कोऊ विधि मानत।
लत्ते सजल लपेटि आंगुरिन ढोल बजावत॥३९६॥
होत नृत्य आरम्भ निकट होरी दिन आवत।
नचत कंचनी समुखि जोगीड़े धूम मचावत ॥३९७॥
तदपि गिनेही चुने राग रस रसिक लोग ही।
रहत उतै के जे सम्मानित मनुज बहुत ही॥३९८॥
नहिं तौ फाग मंडली तजि कोउ ताहि न ताकत।
चढ्यो फाग को भूत मनहुँ सबके सिर नाचत॥३९९॥
होली की निशि मचत भड़ौवा फाग धूम सों।
धूलि उड़े लगि रहत निरंतर रूम झूम सों॥४००॥
अद्भुत दृश्य दिखात निशि दिवस वह मनभावनि।
जो देखेउ सोइ जानत है, कै सकत बखाननि॥४०१॥
भये सबै उन्मत्त बाल अरु वृद्ध एक संग।
नाचत कूदत भाव बतावत गाय सबै संग॥४०२॥
गाली की गाथा विचित्र कविता संग टेरत।
घूमि घूमि चहुँ ओर फिरत युवती तिय हेरत॥४०३॥
होरी रात जलाय प्रात मिलि धूलि उड़ावत।
पी पी भंग उमंग सहित बहु स्वांग सजावत॥४०४॥
बैठे गर नहिं गाय जाय पै तौ हूँ गावै।
परत आँगुरी ढोल न पै, हठि ढोल बजावें॥४०५॥
नसा नीद सों उघरत नहिं दृग तौहूँ ताकैं।
सिथिल गात पग परत न पै चलि तिय गन झाँकै॥४०६॥
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६०
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