सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
-३२-

देखत तिय अरराय कबीर गाय दोरावें।
जाके बदले रंग नीर बरु कीचहुँ पावें॥४०७॥
आस पास गाँवन मैं घूमत गाली गावत।
जहँ पहुँचत अति ही आदर सों स्वागत पावत॥४०८॥
गृह वा ग्राम प्रधान पुरुष जे परम वृद्ध नर।
यथा उचित सत्कार करत मिलि सबहिं द्वार पर॥४०९॥
गृह स्वामिन त्यों गाली सुनि निज जुरी सखिन संग।
मारि भगावत सबन फेंकि जल अमित कीच रंग॥४१०॥
घूमि घामि तब आय द्वार की धूलि उड़ावत।
ढोल छोड़ि सब जात. नदी अन्हाय जब आवत॥४११॥
खात पियत पुनि भाँग पियत कपड़े बदलत सब।
मलि मलि गाल गुलाल परस्पर मिलत गले तब॥४१२॥
होत सलाम प्रणामाशिष नव वर्ष यथोचित।
धन्यवाद जगदीश देत तब परम प्रहर्षित॥४१३॥
होत नृत्य अरु गान देव पूजन मजलिस सजि।
गुजरत नजर बटत इनाम—अकराम बाज बजि॥४१४॥
होत फैर अरु बाढ़ दगत जहँ पर हम देखे।
आज न तहँ कछु चिन्ह दिखात न तिह के लेखे॥४१५॥
जित आवत नित नव कवि कोविद पंडित चातुर।
ढाढ़ी कथक कलावंत नट नरतक अरु पातुर॥४१६॥
विविध बाध्यविद नट चेटक बहुरूपिये सुघर।
इन्द्रजालि बाजीगर सौदागर गुन आगर॥४१७॥
तहँ नहिं मनुज लखात न कछु सामान सुहावन।
ढहे धाम अभिराम देखि वै लगत भयावन॥४१८॥

वाटिका

रही कहां इत वह सुविशाल विशद फुलवारी।
भांति भांति फल फूलन सों मन मोहन वारी॥४१९॥