पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६१८

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अति चन्द अमन्द भयो प्रकास।
जनु रजनि युवति विहंसन विलास।
उगि उरगन गन करि तम विनास।
मानहुँ आभूषन मनि उजास।
सजि साज आज...
बरसाय प्रेमघन सुधा सार,
गायो बसन्त रागहिं सुधार।
श्री बद्री नारायन अपार,
शोभित सुरभी सुखमा निहार।
सजि साज आज...

होली


दैया कंधैया डोलै। (एरी हां)
करि कपट नटखट निपट लपटत।
बैन अटपट बोलै।

गावत बीर कबीर अरी पै, कानन में रस घोलै।
पिचकारी कुचन तकि मारी अनारी मोरी सारी बिगरी।
बनवारी कहा करो, पकर कर धर घूँघट खोलै।
नैनन सैनन मैन जगावत, लेत मनौ मन मोलै।
बरसाय रसन सप्रेमघन की मलन गाल काजन पकरि
घूँघट खोले।

दूसरी


दैया कँधैय्या चलो आवै (एरी एरी)।
लिए सखन संग बरसावत रंग वह निलज गाली गावै॥टेक॥
पीए भंग रँगे रंग सो, तन देखत ही मन भावै।
बड़े बड़े नयन, विष भरे सैन, मनु मोहनि