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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६३२

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—६११—

काफी


आलीरी मनमोहन दिलदार यार—पिचकारी अचानक मारी।
शोभा पुज कुंज के सजनी मोहें मिली बनवारी।
हरकत हारि डारि रंग दीनी यह जरतारी सारी॥
बद्रीनाथ हाथ गहि बरबस वोको यार बिहारी।
गालन मलन गुलाल लग्यो लखि मोहैं विचारी बारी।

दूसरी चाल


आवत गावत फाग री।
बरसावत रंग सरसावत सुख, दरसावत सज अमल नागरी।
चंचल चखनि चहूंकित चितवत चट चित चोरि लेत गुन आगरी,
मुख मयंक माधुरी विलोकनि, सिर सोहत सुभ सरस पागरी।
श्री बद्री नारायन जू कवि, छवि लखि लाजि मनोज भागरी॥

फाग


बिनती सुन लीजिए मोहन मीत सुजान, हहा! हरि होरी मैं।
रसिक रसीले प्रान पिय जिय जनि गुनिये आन, हहा! हरि होरी मैं।
चल दल लसित द्रुमावली लतिका कुसुमित कुंज, हहा! हरि होरी मैं।
मदन महीपति सैन सम अलि अवलिन को गुँज, हहा! हरि होरी मैं।
बरस दिनन पर पाइयत भागिन यह त्यौहार, हहा! हरि होरी मैं।
मदमाते युव युवति जन करत केलि व्योहार, हहा! हरि होरी मैं।
भरि उछाह तासों पिया प्यारे श्री ब्रजराज, हहा! हरि होरी में।
मुरली मुकुट दुराय अब साजो युवती साज, हहा! हरि होरी मैं।
अंजन दृग सिन्दूर सिर चोटी चारु गुहाय, हहा! हरि होरी मैं।
जरित जवाहिर भूषननि सारी सुरंग सुहाय, हहा! हरि होरी मैं।
ऐसे सजि धजि चाव सों वनक विचित्र बनाय, हहा! हरि होरी मैं।
ह्वै जुवती जुवतीन संग फाग खेलिए आय, हहा! हरि होरी मैं।
कसक मिटावहु खोलि हिय खेलहु अब हरखाय, हहा! हरि होरी मैं।