पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६४

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कोऊ सुखावत केश ओट तरु जाय अकेली।
निज मुख चन्द छिपाय अलक अवली अलवेली॥४४७॥
करति उपस्थित ग्रहन परब अवगाहन के हित।
कारन जो नव रसिक युवक जन दान देन चित॥४४८॥
बहु बालिका जहाँ जुरि गोटी गोट उछालति।
चकित मृगी सी कोऊ नवेली देखत भालति॥४४९॥
संध्या समय जहां बहुधा हम सब जुरि जाते।
भाँति भाँति की केलि करत आनन्द मनाने॥४५०॥
छनत भंग कहु रंग रंग के खेल होत कहुँ।
कोऊ अन्हात पै हाहा ठीठी होत रहत चहुँ॥४५१॥
होली के दिन जित अन्हात हम सब मिलि इक संग।
खेद होत तहँ को लखि आज रंग बहु बेढंग॥४५२॥

मदनाताल

मदना तालहु की दुर्दशा जाय नहिं देखी।
जहाँ जात हम सब जन दोऊ समय विसेखी॥४५३॥
जहँ बक सारस कलरव करत रहे निसि वासर।
सोहत बन पलास के मध्य कुमुदिनी आकर॥४५४॥
स्वच्छ बारि परिपूरित पंक हीन मन भावन।
हरित पुलिन नत द्रुम लतिकन सों सहज सुहावन॥४५५॥
नागपंचमी दिन जहँ गुड़िया जात सिराई।
जाकी वह छबि अजहुँ न मन सौं जात भुलाई॥४५६॥
तरु सिंहोर तटवर्ती बृहत रह्यो नहिं वह अब।
जा शाखा चढ़ि वर्षा में कूदत रहे हम सब॥४५७॥

बिजउर

विजउरह को बन कटि गयो भयो थल छवि हत।
नदी तीर जो रह्यो निरखि जेहि नित मन विरमत॥४५८॥