जात मोलवी ढिग लखि हम सब जुरि आवत।
करै न वह फिरियाद कोऊ बिधि ताहि मनावत॥४३४॥
भांति भांति समयानुसार ऋतुफल नव फूलन।
हम सब लहत जहां सुखसो विहरत प्रमुदित मन॥४३५॥
आज न तह द्रुम, लता, रविश पटरी न लखाही।
प्राकारहु को चिन्ह कहूँ क्यों लखियत नाहीं॥४३६॥
यहै बिछौना ताल, बाग मम प्रपितामह त्यों।
दिखरावत निज हीन दशा बन बीहड़ थल ज्यों॥४३७॥
जिहि अमराई मध्य रामलीला वह होती।
नवो-रसन की बहति महीनन जित नित सोती॥४३८॥
और पितामह पितृव्यन की जे अमराईं।
कूप सरोवर आदि नष्ट छबि भे सब ठाईं॥४३९॥
औरहु जेते रहे तबै अतिशय-रम्य-स्थल।
जहँ हम सब बालक गन बिहरत अरु खेलत भल॥४४०॥
तेऊ सब दुर्दशा ग्रस्त अब परत लखाई।
दीन हीन छबि भये न कैसहुँ परत चिन्हाई॥४४१॥
कौवा नारी
"कौवा नारी" घाट नदी "मझुई" को सुन्दर।
सहित सुभग तरु बृन्दन के जो रह्यो मनोहर॥४४२॥
रह्यो हम सबन को जो भली विहार स्थल वर।
भयो अधिक छबि हीन थोरे ही दिवस अनन्तर॥४४३॥
वह सेमर सुविशाल लाल फूलन सों सोहत।
सह बट बिटप महान घनी छाहन मन मोहत॥४४४॥
भाँति भाँति द्विज वृन्द जहां कलरव करि बोलें।
शाखन पैं जिनकी शाखामृग माल कलोलैं॥४४५॥
जिनकी छाया अति बसन्त बासर मैं प्यारी।
पास ग्राम के आय न्हाय सेवत नर नारी॥४४६॥