सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

- ६ -

बा० रामकृष्ण वर्मा मेरे पिता के क्वीस कालेज के सहपाठियो मे थे, इससे भारतजीवन प्रेस की पुस्तके मेरे यहाँ आया करती थी। अब मेरे पिता जी उन पुस्तको को छिपाकर रखने लगे। उन्हे डर था कि कही मेरा चित्त स्कूल की पढाई से हट न जाय-मैं बिगड न जाऊ। उन दिनो प० केदारनाथ पाठक ने एक अच्छा हिन्दी पुस्तकालय मिर्जापुर मे खोला था। मैं वहाँ से पुस्तके लाकर पढ़ा करता था। अत हिन्दी के आधुनिक साहित्य का स्वरूप अधिक विस्तृत होकर मन मे बैठता गया। नाटक उपन्यास के अतिरिक्त विविध विषयों की पुस्तके और छोटे बडे लेख भी साहित्य की नई उड़ान के एक प्रधान अग दिखाई पड़े। स्व०प० बालकृष्ण भट्ट का हिन्दी-प्रदीप गिरता-पडता चला जाता था। चौधरी साहब की आनन्दकादम्बिनी भी कभी कभी निकल पडती थी। कुछ दिनों में काशी की नागरीप्रचारिणी सभा के प्रयत्नो की धम सुनाई पड़ने लगी। एक ओर तो वह नागरी लिपि और हिन्दी भाषा के प्रवेश और अधिकार के लिए आन्दोलन चलाती थी, दूसरी ओर हिन्दी साहित्य की पुष्टि और समृद्धि के लिए अनेक प्रकार के आयोजन करती थी। उपयोगी पुस्तके निकालने के अतिरिक्त एक पत्रिका भी निकालती थी जिसमे नवीन नवीन विषयों की ओर ध्यान आकर्षित किया जाता था।

जिन्हे अपने स्वरूप का संस्कार और उस पर ममता थी जो अपनी परपरागत भाषा और साहित्य से उस समय के शिक्षित कहलाने वाले वर्ग को दूर पड़ते देख मर्माहत थे, उन्हे यह सुनकर बहुत कुछ ढाढस होता था कि आधुनिक विचार-धारा के साथ अपने साहित्य को बढाने का प्रयल जारी है और बहुत से नवशिक्षित मैदान में आ गए है। सोलह-सत्रह वर्ष की अवस्था तक पहुँचते पहुँचते मुझे नवयुवक हिन्दी प्रेमियों की एक खासी मडली मिल गई जिनमें श्री काशीप्रसाद जैसवाल, बा० भगवान दास हालना, प० बदरीनाथ गौड, प० लक्ष्मीशकर और उमाशकर द्विवेदी मुख्य थे। हिन्दी के नये-पुराने कवियो और लेखको की चर्चा इस मडली मे रहा करती थी।

मैं भी अब अपने को एक कवि और लेखक समझने लगा था। हम लोगो की बातचीत प्राय लिखने पढ़ने की हिन्दी में हुआ करती थी। जिस स्थान पर मैं रहता था, वहाँ अधिकतर वकील मख्तार तथा कचहरी के अफसरो और अमलो की बस्ती थी। ऐसे लोगो के उर्द कानो मे हम लोगो की बोली कुछ अनोखी लगती थी। इसी से उन लोगो ने हम लोगो का नाम 'निस्सन्देह लोग' रख छोड़ा था। मेरे मुहल्ले मे एक मुसलमान सबजज आ गए थे। एक दिन मेरे पिताजी खड़े खड़े उनके साथ कुछ बातचीत कर रहे थे। इसी बीच मे मैं उधर जा निकला। पिता जी ने मेरा परिचय देते हुए कहा-"इन्हे हिन्दी का बड़ा शौक है।" चट