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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/७०

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मकरी और छवुन्दे, तेलिन, झींगुर, झिल्ली।
चींटे, माटे, रीवें, भौंरे फनगे चिल्ली॥५२३॥
जनु हिमसागर पर दौरत घोड़े अरु मेढ़े।
सर्राटे सों सीधे अरु कोऊ खै टेढ़े॥५२४॥
बिल में जल के गए ऊबि उठि निकरे व्याकुल।
अहि, वृश्चिक, मूषक, साही, विषखोपरे बाहुल॥५२५॥
लाठी लै २ तिनहि लोग दौरावत मारत।
किते निसाने बाजी करत गुलेलहिं धारत॥५२६॥
कोऊ सुधारत छप्पर औ खपरैलहिं भीजत।
भरो भवन जल जानि किते जन जलहि उलीचत॥५२७॥
लै कितने फरसा कुदाल छिति खोदि बहावें।
बादेव जल आंगन सों, नाली को चौड़ावें॥५२८॥
लै किसान हल जोते खेतहिं, लेव लग्यो गुनि।
बोवत कोऊ हिंगावत बांधत मेड़ कोऊ पुनि॥५२९॥

मछरि मराव

नीच जाति के बालक खेतन मैं पहरा धरि।
मारत मछरी सहरी अरु सौरी गगरिन भरि॥५३०॥
युव जन छीका और जाल लीने दल के दल।
मत्स मारिबे चलत नदी तट अति गति चंचल॥५३१॥
पौला सब के पगन सीस घोघी कै छतरी।
लैकर लाठी चलें मेंड बाटें सब पतरी॥५३२॥

निरवाही

होत निरौनी जबै धान के खेतन माहीं।
अवलि निम्न जातीय जुबति जन जुरि जहँ जाहीं॥५३३॥
खेतन में जल भरयो शस्य उठि ऊपर लहरत।
चारहुँ ओरन हरियाली ही की छबि छहरत॥५३४॥