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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/७१

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भोरी भारी ग्राम बधू इक संग मिलि गावति।
इक सुर में रसभरी गीत झनकार मचावति॥५३५॥
कहँ नागरी नवेली ए तीखे सुर पावै।
रंग भूमि को "कोरस" सोरस कब बरसावें॥५३६॥
किती युवति तिन मैं अति रूप सलोनो पाए।
किए कज्जलित नैन सीस सिन्दूर सुहाए॥५३७॥
धान खेत मैं बैठी चंचल चखनि नचावति।
बन मैं भटकी चकित मृगी सी छबि दरसावति॥५३८॥
किते गांव के छैल लटू कै जिनहिं निहारे।
तिनकी ताकनि मुसकुरानि लखि तन मन वारै॥५३९॥
तुच्छ बसन भूषन संग सोभा घनी लखावें।
मनहुँ "लाल चीथड़ा बीच" सच मसल बनावें॥५४०॥
और लखावें मनहुँ ईस को समदरसी पन।
दियो रूप सम जिन ऊंचे अरु नीचन बीचन॥५४१॥

बालकेलि

हमहूं सब संजोगन जब इन ठौरन जाते।
भांति २ के खेलन सों तहँ मन बहलाते॥५४२॥
फुटे फूट कोऊ ल्याव कोऊ भुट्टे लै घूमैं।
पके २ पेहटन कोऊ करन मलैं मुख चूमैं॥५४३॥
वहु विधि बरसाती जीवन कोउ पकरि लियावत।
अतिहि विचित्र विलोकि चकित औरनहिं दिखावत॥५४४॥
बीर बहूटी कोउ पकरत, कोउ लिल्ली घोड़ी।
कोउ धन कुट्टी, कोउ टीड़िन पांखिन गहि छोड़ी॥५४५॥
रजनि समय जुगनून पकरि अतिसय हरखावै।
आवरवां के बसन बान्हि फानूस बनावें॥५४६॥
ऐसहि विविध बनस्पति के विचित्र संग्रहसन।
बहु बिधि खेल बनावें सब जन बहलावें मन॥५४७॥