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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/८४

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यदपि नीत कहत प्रबल अरिसों न भिरन भल।
प्रकृत वीर कहँ पै न बिना तिहि हने परत कल॥३८॥
सात वर्ष को बालक मेरो रिपु कहलावै।
कहो कंस किहि भांति जगत में मुख दिखलावै॥३९॥
यदपि नीति अनेकन हने सुभट उन याही पन में।
मम प्रेषित मायावी सुचतुर जे असुरन में॥४०॥
महा महिष बर बरद वृकहु बहु हनत सहित श्रम।
बाघन पै सहि सकत सिंह नख सिख तीखे तम॥४१॥
याही सों चाहों मारन मैं तिहि निज कर सन।
सब सुभटन को लै बदलो चुकाय एकहि छन॥४२॥
याही हित है धनुष यज्ञ को आयोजन यह।
जाके मिस वृज सों इत आय सकै सहजहि वह॥४३॥
फिर मेरे हाथन परि बचि सकिहै अरि कैसे।
पंचानन पंजे मैं फँसि मृग सावक जैसे॥४४॥
अब उन सों तिहि ल्यावन हित इत चहिय चतुर नर।
होय सुहृद शुभ चिन्तक मम जो अहो मित्रवर॥४५॥
उभय पक्ष बिस्वास योग्य सब विधि सम्मानित।
इन गुन सों सम्पन्न तुम्है तजि और न कोऊ इत॥४६॥
जासों अति अटपट कारज यह सकौ सिद्ध करि।
ताहीं सों तुमहीं पै अब सब आस रही अरि॥४७॥
या सो गवनहु तुम वृज बेगि न बेर लगावहु।
करि छल बल कोऊ इतै कृष्ण बलरामहि ल्यावहु॥४८॥
चिर वैरी की बलि दै निज मन कसक मिटाऊँ।
है कृतज्ञ दै धन्यवाद तुमरो गुन गाऊँ॥४९॥
नन्दादिक जे गोप तिनहुँ मख देखन व्याजन।
आनहु तिन सबहिन तिन के सँग सहित उपायन॥५०॥
लहिहौ प्रत्युपकार अमोल अवसि पुनि मो सन।
है जासों कृतकृत्य बितैहो सुख सों जीवन ॥५१॥