पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
-५५-

रासभ रूप असुर धेनुक पद पकरि पछारयो।
प्रबल प्रलम्ब दैत्यादिक मुष्टिक हनि मारयो॥२४॥
अनुचर और स्वजन उनके जे हे तिन सब कह।
हने बने दोऊ शिशु अहीर ज्यों पशु अहेर महँ॥२५॥
ऐसहिं असुर अरिष्ट महाबल कृष्ण पछारयो॥
केशी अरु व्योमासुर सुभटनि सहज सँहारयो॥२६॥
ये सब समाचार सुनि मन मैं होत महाभ्रम॥
गोपालन तजि गोपालन मैं समर पराक्रम॥२७॥
सम्भावति अस कैसे कहूँ बिना छत्री सुत।
यदपि अशक्य कर्म उनहूँ सों ये अति अद्भुत॥२८॥
ताहीं सों अनुमान रह्यो दृढ़ मेरो यामैं।
अहै देवकी सुत इमि प्रबल पराक्रम जामैं॥२९॥
पै अब संसय नाहिं अहै बस शत्रु वही मम।
जाहि जन्यों देवकी गर्भ अपने सों अष्टम॥३०॥
नारद मुनि बकि जासु बड़ाई इती सुनाई।
बरबस रिस मेरे मन मैं उन अति उपजाई॥३१॥
कहत वाहि विधि बन्दन करि अपराध छमायो।
बरुन ताहि लखि निज गृह आवत आतुर धायो॥३२॥
प्रणति पूर्वक पूज्यो तिहि सेवक ज्यों स्वामी।
दियो ताहि सानन्द नन्द है कै अनुगामी॥३३॥
तैसेहीं सुनियत सुरपति को मान हानि करि।
कुपित देखि तिहि वृज रच्छ्यो गोवर्धन कर धरि॥३४॥
लज्जित कै मघवा तब वाके पायनि लाग्यो।
निज अपराध छमायो आप अभय वर माग्यो॥३५॥
अहै काल तेरो सो, नारद भाषत मो सन।
सावधान रहिये तासों हे नृप सब ही छन॥३६॥
यदपि होत विश्वास न इन बातन पर मेरो।
तौहूँ करन चहूँ अब याको बेगि निबेरो॥३७॥