पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/८८

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यदपि जगत मैं बहु दुख दुसह महान।
पराधीनता के सम तदपि न आन।
समुझि सकौं नहिं सो अब मैं कित जाँव।
तजहुँ देस यह की गवनहुँ नन्द गांव॥
क्रूर कर्म करि हौं अक्रूर कहाय।
सकिहौं कैसे जग में मुख दिखराय॥
निज कुल बालक घालक अरि कर माँहि।
अर्पन करिहौं कैसे जानहुँ नांहि॥
खोये बहु बालक देवकि बसुदेव।
शेष निधन सुनि मरिहैं वे स्वयमेव॥
करी प्रतिज्ञा मै तिन ल्यावन काज।
ताहू के त्यागन मैं लागत लाज॥
उभय लोक को शोक सकौं किमि त्यागि।
यासें बचिबे हित जाऊँ कित भागि॥
सोचहुँ जब तिन अतुलित बल की बात।
तब सब संकट स्वयमेव मिटि जात॥
बड़े बड़े बीरन जो मार्यो बाल।
अवसि होइहै सो कंसहु को काल॥
पुनि अकासवानी अन्यथा न होय।
मिथ्यावादी देवन कहै न कोय॥
देखि पाप को जग पुनि प्रचुर प्रचार।
सम्भव है हरि होंय मनुज अवतार॥
जब जब होय धर्म की जग मैं ग्लानि।
बढ़हि असुर कुल संकुल अति अभिमानि॥
जब तिनसों दबि दीन सताये जाहिँ।
जबहिँ साधुजन द्वै व्याकुल चिल्लाहिँ॥
तब करुनाकर करुना करि प्रगटाय।
दुष्ट दलन दलि निज जन लेहिं बचाय॥