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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/८९

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वैसोई सब जोग जुरयो जब आय।
परिनामहुँ तब वैसोई होत लखाय॥
निर्दय कुटिल नीति रत नृपति महान्।
अन्याई अविचारी लोभि निधान॥
हरत प्रजा गन प्रान धर्म धन हेरि।
कुपथ चलावै सबहि सुपथ सों फेरि॥
तैसई मन्त्री अरु सब पुरुष प्रधान।
राज कर्मचारी खल दुखद प्रजान॥
जिन अधिकार बढ़यो अति अत्याचार।
मच्यो चहूँ दिसि जासों हाहाकार॥
प्रजा दुहाई की सुनवाई नाहिँ।
चहै न्याय लहि दंड रोय बिलखाहिँ॥
मन मैं सबहिँ सरापहिँ हाथ उठाय।
ईस वेगि अब याको राज नसाय॥
जिमि राजा तिमि प्रजा होहि यह रीति।
तासों प्रजा परस्पर करहिँ अनीति॥
लेय जो कोऊ काहूँ से देय न ताहि।
मान धर्म निज नहि कोउ सके निवाहि॥
दारा धन रच्छा करि सके न कोय।
बिनहिँ परिश्रम हरै प्रबल जो होय॥
पापाचार बढ्यो सद्धर्म दबाय।
जप तप स्वाध्याय नहिँ होत सुनाय॥
नहिँ उपासना ज्ञान योग की बात।
भूलेहुँ कोउ मुख सों होत सुनात॥
स्वाहा स्वधा शब्द भूले सब लोग।
फैल्यो जासों बिबिध रोग अरु सोग।
धर्म निरत सज्जन कहुँ नाहि लखाहिँ।
पाखंडी पापी असंख्य इतराहिँ॥