पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/९६

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सुनि श्री राग अलापन कंठ हजार।
मोहे नारद सारद शिव रिझवार॥
सकल राग रागिनी तहां कर जोरि।
बिनवत गान लहन हित मान बहोरि॥
सुर किन्नर गन्धर्व अप्सरन संग।
मोहे निज गुन गर्व त्यागि कै दंग॥
सकल सिद्धि चारन ऋषि मुनि दिगपाल।
मोहे सकल जीव जल थल तिहि काल॥
रवि रथ रुक्यो मन्द परि पवन प्रबाह।
कालिन्दी जल रुक्यो सुनन सुर चाह॥
खोयो सुधि बुधि बेचारो अक्रूर।
मोह्यो मन परि सुख सागर में पूर॥
रास बन्दहूँ भये भई बहु बेर।
है चैतन्य परयो चिन्ता की फेर॥
निरख्यो नभ मै नहिं सुर एक विमान।
तरल ताल नहिं त्यों सुनि सुर सन्धान।
भई रास गुनि बन्द चल्यो वृज ओर।
तर्क वितर्क विविध विधि करत अथोर॥
मारग मैं चहुँ दिसि लखि छबि अभिराम।
जान्यो वृज समग्र शोभा को धाम॥
निरख्यो पूरब सों बदल्यो सब रंग।
विसमय अति अधिकाय भयो मन दंग॥
यों चलि नन्द गांव लखि कै कछु दूर।
चितै चकित चित कहन लग्यो अक्रूर॥
अहो कहा अचरज कछु कह्यो न जाय।
जितहि लखौं तित अद्भुत दृश्य दिखाय।
लख्यो बार बहु नन्द गांव में आय।
जिहि छबि लखि चित आज रह्यो चकराय॥