नेक ॥ परम उच्च अट्टालिकानि की रासि। धारि रह्यो अलका के सम यह भासि ॥ किधौं भाग कोउ अमरावती उठाय । ल्याय दियो सुरगन वृज बीच बसाय ॥ कौन समुझि इहि सकै गोपगन ग्राम । बन्यो अहै जो श्री समृद्धि को धाम ॥ इन अचरज काजनि को कारन एक। है जामै कैसहु नहिं संसय जाके प्रगटे अकथ अनोखे काम । भये इतै सोइ निवसन को यह धाम ॥ यों बहु प्रकार विचार चित्त मैं करत पुर पैठत भयो । लखि नन्द की आनन्द मय बर भवन अति छबि सों छयो। कछु दूर पै अक्रूर तजि रथ द्वार दिसि पग द्वै दयो। मिलि नन्द कियो प्रणाम सादर ताहि निज गृह इति श्री अक्रूर वृज गवन नामक द्वितीय सर्ग समाप्त लै गयो । अथ तृतीय सर्ग करि स्वागत बहु भाय, अति आनन्द उछाह संग । अक्रूरहि बैठाय, नन्द ल्याय निज द्वार पै ॥१॥ आतिथ्य सत्कार, अर्ध्य पाद्यादिक दियो । भोजन रुचि अनुसार, परस्यो बिबिध प्रकार के ॥२॥ भोजन कीन्यो जानि, प्याय सुशीतल मधुर जल। अँचवायो सन्मानि, दियो पान लाची अतर ॥३॥ स्वस्थ जानि अक्रूर, कुशल प्रश्न पूछन लग्यो । इतनहिँ मैं कछु दूर, सों बाजी मुरली मधुर ॥४॥
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/९७
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