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गुप्त गोष्ठी गाथा

देता कि जनाब नव्वाब साहिब बहादुर, यह क्यूँ नाराज हुए जाते हो! खुदा के वास्ते ऐसी जल्दी ही क्या है,न दो बरस न चार फिर बकौल शखसे—"बार बार आप जो कहते हैं कि घर जाऊँगा, यह तो फर्माइये साहिब कि यह घर किसका है?" तो बस लाचार हो जाना पड़ता है, और सच तो यह है कि जब कोई खुदा और पयगम्बर का वास्ता दिलाते तो ग्रह इस्लाम को चारा ही क्या है। कोई कह चलते कि—"हुजूर और तो सब है, मगर यहाँ चन्द ऐसे कमीने सतऊन और नालाइक लोग आते कि जिनकी सूरत से वल्लाह मुझे तो नफ़रत है। मगर क्या करूँ, जरा इस लौंडे की उम्र अभी कच्ची है, लिहाज़ा अकेला छोड़ इसे टल जाना भी मुनासिब वक्त नहीं मालूम होता, वन-वर पर किसको काम नहीं है।" सारांश जिसकी बातें सुनिये सब इसी के आस पास की होती कि उन्हें यहाँ रह्ना मंजूर नहीं है। इन्हें छोड़ और भी ऐसे अनेक हैं, कई तो शाइर जो शेर और गजल बनाते हैं कई मर्सिया खाँ और कई गज़ल सुनाते हैं। कोई कोई डेढ़ हाथ की डाढ़ी को भी जनाने दुपट्टे से छिपा कर मटक मटक कर और नाक पर हाथ रख रखकर रखती पढ़ने वाले, कोई गाने वाले, कोई बजाने वाले, कुछ नाचने वाले और कुछ नक्काल और कव्वाल, कोई बटेरवाज, और कोई कबूतरबाजः कोई लाल और बुलबुल लड़ाने जानता, तो कोई मुर्ग लड़ाने में एकता, कोई किस्सा खाँ, कोई साहिब कनकब्बेबाज और कोई इल्में-महफ़िल के उस्ताद कोई हुक्का साज और मदक चर्स वगैरह पिलाने में होशियार; कई सकिए, गुलअन्दाम, कई लोग परी को शीश में उतार लेने में नेकनाम, कितने आशि के जाँबाज़ और कितने माशु के ज़माना-फित्नासाज कितने पोशाक और लिबास दुरुस्त करने वाले कई शतरंज, चौसर और गञ्जिफा खेलने वाले, कोई ताश के हेर फेर से मुतश्राज्जिव करने वाले, कितने सनाखाँ और कितने दिल्लगीवाज शोहदे भरे पड़े हैं। उनमें कुछ तो अरबी फ़ारसी पढ़े अपने मामूली चाल के हैं, कुछ नई रोशनी वाले जिनके पेशवा एक बड़े चलते पुर्जे मिरजा निकाक बख्श एम॰ ए॰ और उनके दो चार साथी हैं जो कि सब अलीगढ़ के मोहमिहन ओरियंटल कालेज के निकले बूढ़े सर सैय्यद के चेले हैं। जिनकी रातों दिन यही कोशिश है कि अँगरेज़ बनो, यह लम्बी मुँहड़ी का पायजामा, छकलिया अँगरखां और इस दुपलड़ी टोपी को छोड़ा, व नीज सलमें-सितारे या बादलें और कलाबत्तून के कामदार या जरी और कमखाव या रेशम के सोज़नकारी के कपड़े फाड़ कर फेंको; क्योंकि ज़नामों की चाल है। काली कुर्ती