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प्रेमघन सर्वस्व

रङ्ग विरङ्गी महतावों के प्रकाश की आभा जल में पड़कर मानो की एकी एकी दून लगाती ऐसा अनुमान कराती, कि कदाचित् श्री गङ्गाजी ने अनेक रङ्ग के असंख्य कमल खिलाये हैं। वा भगवती भागीरथी ने अपने प्रियपति रत्नाकर के समस्त अमूल्य रत्नों का हार बना कर निज प्रिय सखी काशी के गले 'में पहिनाना चाहती है। वाह! अनेक घाटों पर भी आज रोशनी हई है, यह तो इस समय मानों सड़क की लालटेन या मील के पत्थरों का कार्य दे रही है क्योंकि इस समय इनके न रहने से न तो तट, और न घाटों की संज्ञा का शान हो सकता है। यह क्या मणिकर्णिका महा तीर्थ है? वाह यहाँ की रोशनी तो मानो बतला रही है, कि सच्ची रोशनी बस यही है; और सब रोशनियाँ झूठी है अनेक चितायें जल रही है? और अनेक शव स्थान संकोच के कारण कफ़न लपेटे पड़े हैं; तथा सैकड़ों जन रोते बिलखते दिखाई पड़ रहे मानो इस मसल की सच्चाई साबित कर रहे हैं, कि—"दुनियाँ भी है क्या बलन्दी सराय। कहीं खूब खूबी कहीं हाय हाय॥" क्यों नहीं, मुण्डमालधारी भगवान भूतनाथ रूद्र की राजधानी काशी न है, कि जिनका नाम ही महास्मशान है।

कदाचित् यही उनके कार्यालय का स्थल भी है। क्योंकि "चिता भस्मालेपी गरल असनम्" को स्मशान का निवास ही प्रिय है। सच है, सच्चे उदासीन और विशुद्ध विरक्त के रहने के योग्य इसके सिवा और कोई स्थान भी तो समीचीन नहीं है। जिसके तनिक देखने ही से विचित्र ज्ञानोदय होता, और पाप का भय, तथा धर्म की चिन्ता होती है, इसी से स्मशान भी एक मुख्य शान का स्थान माना गया है।

धन्य काशी कि जहाँ बलात्कार उच्चातिउच्च तथा नीच म्लेच्छा आदि को भी यह दृश्य देख ज्ञान लाभ करने का अवसर मिलता, पार करते भी धर्म शिक्षा मिलती है। देखिए आज इसी ओर से कई सौ नौकाएँ, और सहस्रों मनुष्य गये हैं? पर क्या किसी को कुछ भी ज्ञान लाभ हुआ होगा? उन्हें कैसे शान लाभ हो जो इधर देखते ही नहीं।

धन्य है हिन्दु धर्म तथा उनके विश्वास सन्मान को कि मध्य नगर में यह प्राचीन पवित्र तीर्थ आज भी ज्यों का त्यों अपना प्रताप दिखाता वर्तमान है। नहीं तो इस अङ्गरेज़ी सफाई की सनक के समय में इसका यों यहां अपने पूर्व कार्य को करते रहना कितना असम्भव है, विशेषतः जब कि प्रति वर्ष यह 'अनेक लाट और राजप्रतिनिधियों के दृष्टिगोचर होता ही रहता है? यह क्या बारह बज गए कि जो मन्दिरों में आधी रात की नौबत बज रही है। धन्य,