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बनारस का बुढ़वा मंगल


पाठक! क्या आपने नहीं समझा कि यह कौन महाशय से यह वही लखनऊ निवासी मेरे प्रिय मित्र थे, कि जिन्हें हमलोग ढूढ़ते ढूढ़ते थक गये, और वे अब तक न मिले थे, भला वह क्यों मिलने लगा कि जो एक अपूर्व आनन्द का सत निकाल चुप चाप अकेले आपही को तृप्त करना चाहता है। यहाँ का रङ्ग देख उसने भी यह गुलाबीठाट ठाटा कि अचाञ्चक मैं भी उसे न पहचान सका, फिर दूसरा कोई कब ताड़ सकता था। उसके वेष और परिच्छद में कहीं लखनऊरन का पता भी नहीं रहा, लखनऊ के। चिकनके अंगरखे के स्थान पर गुलाबी बार्नट का कोट, और सलमे की कामदार गोल टोपी के स्थान पर बनारसी गुलाबी सेल्हा और फिर वैसाही दुपट्टा। अस्तु इनकी उस गुप्त नौका का बृतान्त, जिसका कि नाम उन्होंने "उड़न खटोलना," और मैने किश्तियेनूह रक्खा है, यद्यपि सर्वथा अकथ है, तथापि अदि अवसर मिला तो फिर कुछ चर्चा चलाएँगे। प्रातः काल होई चुका था, हेरे पर पहुंचते पहुंचते दिन भी कुछ चढ़ आया, नित्य कृत्य से, निवृत्त हो. जो सोये, तो सन्ध्याको औरों से जगाये गये अस्तु फिर उसी पाठ पढ़ने को चलने चलते बाट और राजबाट पहुँचते नौ बजे, क्योंकि आज यहीं से प्रारम्भ करने का विचार स्थिर हो चुका था। यहाँ से जो नौका पर चढ़कर चले हो आज मेले की कुछ दूसरी हो शोमा लखाई पड़ने लगी, मानो मेले की दशा भी आज उस तरुणो की युवाअवस्था की सी है, जिसमें मनोहरता और निकाई अपनी अन्तिम अवस्था पर पहुँचा चाहती है। राजघाट की ओर से सत्र नौकाएँ असीघाट की और चली जा रही है। ऐसा अनुमान होता कि मानो श्राज श्री गङ्गाजी अपनी धारा उलट कर पश्चिम की ओर बहा रही है, और प्रवाह के कारण स्वयम् सब नौकाएं उधर ही बही जा रही हैं। अथवा गंगा जी आज आकाश-घना हो देवोंका आकाश मार्ग (डहर) बन गई है 'जिसपर से बुढ़वा मङ्गल में पाये देवताश्री के बमान बरात के सझं विदा हो कर मानों अब दूलहे के घर कैलाशको जा रहे हैं। श्रद्दा, ये असंख्य नौकाएँ इस शीन गति से आपस में बचती बचाती ऐसी उड़ी चली जाती हैं, कि जैसे लोटाभंटा[१] के मेले में असंख्य पतङ्ग उड़ाने वालों की. लाग डाँट से अमल आकाश में डील की डोर पर छूटी अनेक प्रकार की रङ्ग विरंगी पतले आपस में फल खाती और बचती बचाती वेग से बड़ी चली जाती हैं। यों ही इन नौकाओं पर प्रज्वलित नाना रङ्ग रञ्जित दर्पण, वर्ण के मध्य से मोमबत्तियों और


  1. मिर्जापुर नगर में होने वाला एक पतंग उड़ानेवालों का मेला।

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