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दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार

और हर्गिज़ हर्गिज़ देर न लगाओ। किसी किस्म के तरद्दुद और तश्वीश की गुजाईश नहीं है। सब किस्म के सामान आसाइश ज़ादह-अज़-ज़रुरत मुज़तसा है मैंने भी दर्यादिल्ली का कोई दकीका बाकी नहीं रखं छोड़ा है। खुसूसन् यह देखकर कि जब कुल उमरावरोआसाई हिन्द यहाँ आकर दियाला निकल:् जाने का ख्याल बिलकुल फरोगुज़ाश्त कर चुके हैं तो अपना तो हमेशा ही से यह मकूला रहा है, कि "दिल की खुशी के खातिर चख डाल माल धन को गर मर्द है तो शातिर कौड़ी न रख कफ़न को।' फक़त।"

बस, फिर क्या था, मन उठ खड़ा हुआ, और चित चञ्चल हो उठा, "भारत बधाई[१] बहाई, चटपट कल कपड़े और ओढ़ने बिछाने आदि के समान ले रेलवे स्टेशन पर आ धमका। सेवकों से सब असबाब गाड़ी पर से उतारने को कह ज्योंही स्टेशन के भीतर चलना चाहा, कि श्रागे से आये अपने एक कर्मचारी ने कहा, कि—"जल्दी कीजिये, ट्रेन पहुँचा चाहती है।" मैं उससे टिकट मोल लेने और माल-ताल तुलने तथा उसके लदाने का प्रबन्ध करने को कह कर जो आगे चला और प्लेटफार्म पर पहुँचा, तो देखता हूँ, कि स्टेशन पर एक अच्छी भली मीड़ लग रही है। अधिकांश जिसमें दिल्ली ही के जाने वाले कुछ उनको पहुँचाने वाले, और सबसे अधिक कौतक-प्रिय अथवा इस मेले का तमाशा देखने वाले, बहुतेरे जिनमें सम्भ्रान्त नागरिक नव-युवक, कुछ स्कूलों के विद्यार्थी, कि जिनके बड़े लोग तो दिल्ली पहुँचे और उन्हें रखवाली के लिए घर छोड़ गये। कुछ ऐसे जो दिल्ली के भयर समाचारों को सुन मेरे समान हतोत्साह हुये, बहुतेरे ऐसे कि-जो माता पिता की मितव्ययिता वा कृपणता अथवा स्वयम् संकोच से संकुचित, कोई "इस भीड़ मार के उपद्रव में तुम कहाँ जाश्रोगे, कैसे जाओगे, क्या करोगे, क्यों व्यर्थ के बखेड़े में पड़ोगे? चुपचाप बैठे रही यहीं बैठे-बैठे समाचार पत्रों से सब जान लेना, इस समय वहाँ जाने योग्य नहीं है" इत्यादि बड़ों की बातों से परवश पड़े, दिल्ली के यात्रियों और उनसे भरी खचाखच अपट्रेनों ही को देख दिल्ली की दशा अनुमान करने वाले कुछ तीन तीन ट्रेन अट जाने पर भी न जा सके लोग गाड़ी आने के पहले ही से गठरी मोटरी लादे, लड़ाई करके भी अवश्य चढ़ जाने के इरादे से खड़े। इसी भाँति


  1. प्रेमघन जी की इसी दरबार के अवसर पर लिखी कविता, प्रेमघन सर्वस्व प्रथम भाग देखिए।