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प्रेमघन सर्वस्व

बुटती और कहीं छनती। कहीं लोग नहाते धोते, तो कहीं कसरत करते और अनेक स्थान पर परस्पर दाँव पेंच होते। कहीं भाँग के नशे में बदमस्त चौबे गाते, तो अनेक विचित्र वचन रचना करते सराहते! कोई अनेक अलौकिक वेश विन्यास में तत्पर दङ्गल में जाने को उतावले लखाते। देखते ही चित्त ऐसा प्रसन्न हुआ कि—मानो अज ही में पहुँच गये और कदाचित ये मथुरा ही का कोई वाध प्रांत है, जहाँ का यह देवकल्प-ब्राह्मण बूंद अपने निपट भोले भाव से किसी अन्य युग के मनुष्यों की भ्रान्ति चित्त में उत्पन्न करता है। जैसे ही हम लोग कुछ निकट पहुँचे कि—"जै जमना मैय्या की जय।" की पुकार मची। हम लोगों के मित्र श्री मान भयङ्कर भट्टाचार्य से उनमें कइयों ने पूछा,—अरे भट्टा! ये इतेक जजमान तू एक साथ कहाँ सैं पकड़ ल्यायो? स्याबास! स्यावास! आजतो तूने चकाचक भाँग और धकाधक लड़ान की अच्छी टहराई।

भयं॰ भहा—अरे से नाय नय। ह्याँ तो तिहारेई माथे चकाचक छनाइबे को ल्यायो। इन मैं कोऊ यजमान नाय नै। ये तो उलटे हमारे ह्याँ माँग पीयवे को आये हैं, सो नेक सिदौसी ल्या। देर मती कर।

चौबे—ऐसो! तो चिंता काहे की! ले सिंदौसी ले। अरे टेपरो! दौड़! अरे खाँखरो! कछू बैठवे को लाय और वा गागर की छनी माँग ल्याइयो।" सुनते ही कई दौड़ पड़े, कम्मल और चटाइयाँ बिछ चलीं। हम और सेट डरपोक मल एक चटाई पर और चार चटाइयों पर नव्याब साहेब. तथा उनके पारिपद लोग बैठे। दो पर और दूसरे लोग। भयंकर भट्टाचार्य जी ने कहा, अरे या अंगरेज बने वालिष्टर के बैटिबे को तो कुर्सी चाहिये। ये तो भला सबरे हिंदुस्तानी है, तासों वरती ही पर बैठ सके, पहाड़ चौबे बोले कि अर कम्भकरण! तु ओंधों है बैट जा, ये ताई खुरसी लगाय बैठ जायगी।

भयं॰ भट्टा॰—नहीं वा गाटडी का इतै स्त्रींच ला, और वाई पैं एक कामरी गेर दै।

निदान इस प्रकार हम लोगों के बैठते ही मटकने और कुल्हड़ों में भाँग वट चली! कई प्रकार के लड्डु और मिठाइयाँ भी कसोरों में आई, लोग यथेष्ट खाने पीने लगे जो तनिक भी नाक भौं सिकोड़ता कि भट्टाचार्य जी की डाँट सुन कर सन्न हो जाता। हमारे वैरिष्टर साहिब तो कही बुड़की में सीधे हो गये; परन्तु सेठ जी कहने लगे कि "भला यमुना के तट पर ब्राह्मण के धान्य कैसे खाँय?" उत्तर मिला कि तू भी मँगा और खिला। उन्होंने कुछ