पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/२०४

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शोकोच्छ्वास


हा भारत! तेरे दुर्भाग्य का कहाँ बारापार है! तेरी जो सुसन्तान तेरी शोभा के हेतु होती जिन पर तेरी भलाई की आशा की जा सकती चे अकस्मात् चटपट तुझसे दूर कर दी जातीं। यदि विचार करते तो इसी वर्ष तुझसे ऐसे ऐसे अमूल्य रत्न छीन लिए गये, जिनकी पूर्ति अर एक प्रकार असम्भव सी प्रतीत होती है। फिर न केवल एक ही गुण और योग्यता के, वरच सभी अंश के एक से एक अद्वितीय पुरुष-रल तुमसे विलग हो रहे हैं। किसके किसके लिये आँसू गिराएँ। इस वर्ष जैसी क्षति तुझको सहनी पड़ी वह अकथनीय है। तेरे सभी प्रान्तों ने अनेक अमूल्य रत्न खोये, किन्तु उनमें तो ऐसे अनेक लोग अद्यापि लभ्य हो भी सकते हैं कि जो तुझे आश्वासन दें। किन्तु हतभाग्य यह युक्तपदेश तो अन्य सब गुणों की भाँति इससे भी हीन है। हाय उसने अपने बहुत बड़े आधार को खोया है। विशेषत अवध तो मानी अनाथ ही हो गया। इसी शोक सहानुभूति के अर्थ अयोध्या में आये एक सुप्रसिद्ध माननीय तालुक्कदार का यह कथन कैसा कुछ सत्य है कि—साहब अब तो कोई ऐसा हममें रहाई नहीं कि जो अवध का रिप्रेजेण्टेटिव हो कर कहीं जासके और उसकी तमाम अज़मत और शान को दिखला सके। महाराजा साहब अयोध्या का चल बसना तो गोया सूबः अवध का बेचिराग़ हो जाना है।"

अयोध्या तो मानो लुट ही गई। क्योंकि उसका एकमात्र स्वामी श्राज उससे जाता रहा। उसका अन्तिम प्रतापादित्य स्वरूप प्रतापादित्य अस्त हो गया! यद्यपि वह अनेक दुस्सह प्रताप-सम्पन्न सूर्यवंशीय महामहिम महाराजाघिराजों की वियोग व्यथा सहन कर चुकी है, इल्वाकु, मान्याता, कुकृत्रस्थ, दिलीप, रघुरामादि के शोकानल में जल कर वज्र-हृदया हो गई है, तथापि वह आज थत्यन्त ही अधिक विह्वल हो गई है, और सहस्रों निवासियों के अतिरुदन के मिस मानो अपने आन्तरिक शोक-शूल को प्रकाशित कर रही है। वह सोचती है कि—"जिन पतियों के आधार पर मैंने अमरावती और श्रलका की शोभा को भी अपने सौभाग्य और सौंदर्य से तुच्छ की थी और जिनके वियोग को सहते-सहते दीन और हीन होती-होती निज जननी बसुन्धरा के अंक में लीन हो चुकी थी, विधाता ने उससे छुड़ा फिर नवीन जन्म दिया