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विधवा विपत्ति वर्षा

अनुसार उचित था, क्योंकि चाहे केवल विधवा होने ही मात्र के लिए उनका विवाह क्यों न हुआ हो अथवा पति का सम्बन्ध केवल इस दो अक्षर के शब्द का नाम कानों में सुनने ही तक क्यों न रहा, और चाहे संसार की अत्यन्त आवश्यक आवश्यकता और मुख्य रसानुभव से वंचित रह कर भी समस्त जीवन उन्होंने यद्यपि व्यभिचारादि दोष से दूषित न होकर भी व्यतीत किया, पर तो भी इस अत्यन्त सूक्ष्म विचार से विचारने योग्य विषय को जब कोई विचारवान विचारेगा, लाचार हो यही कहना उसे उचित होगा कि इससे अधिक दुःख संसार भर में कोई नहीं। प्रायः सब अवस्थाओं में ऐसे दुःखी को प्राण त्यागना परम सुखास्पद है और इस दशा में इससे सुन्दर कोई अन्य उपाय नहीं है। अतएव हर तरह से यही सिद्ध होता है कि सती हो जाने की प्रथा इस समय, इस मंडली, और इस प्रचाली के अनुसार अत्यन्त उत्तम, उचित और न्याय थी।

पर हाय! जिस निगोड़े विधाता ने हमें इस देश और ऐसी बुद्धि वाली मण्डली में स्त्री जाति के मध्य उत्पन्न किया और इस काले ललाट में दुस्सह दुःख देखने ही के लेख लिखे, क्या वह उसके बाधक रोगों के दर करने हारे औषध का वैद्य नहीं जो उसके निशाने पा लक्ष्य चूके? देखिये! यद्यपि यह अंगरेजी राज प्रायः सब ही को सुखदायी, भाग्यवश इस देश में स्थापित हुआ, पर हम लोगों के लिये कदापि ऐसा दुःखदायक कोई न था, जिसमें भी जो हम लोगों की दशा पर दया प्रकाश करने ही के अपराध से विधि के वैरी होने के कारण बुद्धि विभ्रम रूपी दण्ड के भागी हुये, ऐसे गवर्नर जनरल और वाइसराय अर्थात् राज्य प्रतिनिधि लोगों ने यहाँ आकर जो हम लोगों की दशा पर करुणा करके छोटे दुःख को दूर करना चाहा, बड़े भारी दुस्सह दुःख के पहाड़ को हमारे सिर रख गये। अर्थात् जैसे कोई दयावान किसी के गले लिपटे सर्प को शस्त्र से मारा चाहे और उसके दुर्भाग्य और होनहारी मृत्यु के कारण भ्रम से शस्त्र का आघात उस मनुष्य पर हो जाने से उसकी मृत्यु हो जाय, यद्यपि उस दयावान् मनुष्य का कोई अपराध नहीं पर तो भी ईश्वरेच्छा प्रतिकूल प्राचरण से मृत्यु का कारण तो वही गिना जायगा, और मृत्यु सर्प द्वारा न कही जाकर केवल शस्त्र द्वारा कही जायगी, इसी रीति से जिस महात्मा महानुभाव राज्य प्रतिनिधि ने सती होना अनुचित कार्यसमझ कर बन्द किया, यह न समझा कि इसका परिणाम क्या होगा। जैसे किसी के फोड़े के चीरते समय चिल्लाने पर दया कर कोई जर्राह या फस्द देते हुए फस्साद