पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/३०

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और उनके सम्पादकों का समाज" शीर्षक लेख में उनके विवादास्पद शैली की सुन्दर आलोचना है।

प्रेमघन जी ने आलोचना की कोई अलग पुस्तक नही लिखी जिसमें उनके व्याख्यात्मक तथा ऐतिहामिक आलोचना का रूर स्पष्ट हो सके। उन्होंने ऐतिहासिक तथा व्याख्यात्मक आलोचना पद्धति का प्रादुर्भाव किया और उसका जो परिमार्जित तथा परिष्कृत रूप हमारे सामने ला सके उसके लिए वे धन्य हैं। आनन्द कादम्बिनी और नीरद उनके काव्य के प्रकाशन के मार्ग थे, उनका समय समय पर बन्द हो जाना आलोचना शैली के लिए परम अहितकर सिद्ध हुआ, नहीं तो उन्होंने अपनी शैली को और विकसित किया होता।

प्रेमघन जी आलोचक ही नहीं थे वरंच एक सद् सम्पादक भी थे। "सम्पादकीय समीर सार" स्तम्भ उनके स्पष्ट विचारों के ही लिए था। आनन्द कादम्बिनी के प्रत्येक वर्षारम्भ के अग्रलेखो में उनकी व्यापक मनोदृष्टि तथा तत्कालीन समस्याओं का स्पष्टीकरण मिलता है। वास्तव में प्रेमघन साहित्य के अध्ययन की महानता उनके अन लेखों के अध्ययन से ही स्पष्ट हो सकती है। आप अपनी पत्रिका आनन्द कादम्बिनी को ठीक समय पर न निकाल सकते थे, जिसका कारण भाषा का परिमार्जन, प्रूफ का ठीक करना तो था ही पर बाद के जानन की क्टु और दुखदाई परिस्थितियाँ भी थीं। क्षुब्ध हृदय बोल उठा था—

"अब तो इन नीचन बीचन में बसि कै यह बैस वितावनो हैं।"

सम्पादकीय टिप्पणियाँ श्रापकी बड़ी प्रभावशाली होती थीं। व्यंग से चहचहाते चित्र हमें यत्रतत्र दिखाई पड़ते हैं। 'आनन्द कादम्बिनी का प्रथम प्रादुभाव' यदि उनकी प्रथम ललकार है तो नीरद का नवीन वर्षारम्म हिन्दी के पाठक वा ग्राहकों की दशा का यथार्थ चित्र है।

चातक विबुध जन तोषि रसिक मयूर मन मोहत हरे,
बरषै सुविधा वारि जासों नागरी सरवर भरै।
हरिआय आरज वश क्षिति अरु ताप कुमतिन को टरै,
आनन्द कादम्बिनी भारत छाय निन मगल करै।

इसी मगल कामना से प्रेमघन जी का साहित्यिक जगत में प्रादुर्भाव हुआ