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नागरी समाचार पत्र और उनके सम्पादकों का समाज

अशुद्धियाँ दिखलाना वा उनसे उत्तर चाहता है। जीते लोग तो उसके विरुद्ध उत्तर भी दे सकते हैं, किन्तु मरे तो न उत्तर देने आ सकते हैं, न उनको किसी प्रकार की शिक्षा मिल सकती, वा ग्लानि हो सकती।

अस्तु, हम समझते हैं कि इस झगड़े के इतने बढ़ने का कारण भी यही अशुद्धि प्रदर्शन है। सम्भव है कि-अपने सजातीय निज भाषाचार्य स्वरूप भारतेन्दु और उनके गुरू की अशुद्धियां देख उत्तेजित हो भारत मित्र सम्पादक के सरस्वती दोष दिखलाने पर विवश हुए हों, योही सरस्वती सम्पादक और उनके अनुयायी वा उनमें सहानुभूति रखने वाले लोग भी दूसरे ओर की धूल उड़ानी आरम्भ की। इसी से यह मान लेना पड़ता है कि इस विवाद में शुद्ध चित से केवल विवाद ग्रस्त विषय के निर्णय के अर्थ उत्तर प्रत्युत्तर न होकर सर्वथा विपक्षी के परास्त करने और उसे अपमानित करने ही का प्रयास किया गया, सुतराम् लोग दूसरों के आक्षेपों के उत्तर में केवल गाली दे, वा उपहास कर के प्रसन्न होते रहे।

द्विवेदी जी का दोष यदि भारतेन्दु के दोषों को विशेष कर दूसरी बार का दिखलाना माना जाय, तो भारत-मित्र की उपहासात्मक समालोचना शैली भी दूषणीय कही जायगी, कि जो उसकी प्रयःस्वभाव सिद्ध है। योंही उभय पक्ष का आ प्रत्यक्ष रूप से खण्डन मन्डन करना भी न्यून अनुचित न था।

अस्तु इस झगड़े में भारत-मित्र अथवा सरस्वती के सम्पादक महाशयों से तो हम को उतना उपालम्भ नहीं कि जितना उनके सहायकों में जिनकी दशा पर यह कहावत याद आती है कि "योर तो लिखे न तुलसीदास, अधिक गाये भगतवन" तो भी उसमें जो ऊपर कहे गये कई ऐसे कारण भी हो सकते हैं, कि जिनमें मनुष्य विशेष उत्तेजित होकर कदाचित् कुछ विवेक च्युत भी हो सकता है फिर किसी विशेष से उत्पन्न आकस्मिक कार्य से कुछ स्थायी हानि वा लाभ नहीं हो सकता है। परन्तु यहां तो हम देखते हैं, कि हमारी भाषा के लेखक स्वभावतः "हास्येपितद वदत यत्कल हेप्यवाच्यम्।" भारत धर्म्म महामण्डल के सम्बन्ध में विशेषतः जब से कि उसका अधिकार कुछ नवान व्यक्तियों के हाथ में आया है प्रायः ऐसे ही लेख देखने में आते हैं अभी विगत होली और उसके पीछे एप्रिल फूल