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प्रेमघन सर्वस्व

से भी इन पूर्व प्रशंसित महाशयों में कुछ छेड़छाड़ चली आती थी। किन्तु पूर्व विवाद का भी मूल कारण अवश्य ही केवल विद्या विषयक मतभेद अथवा परस्पर विजिगीषा के अतिरिक्त कोई और होना असम्भव प्रतीत होता है। एवम् परस्पर दो समकालीन तुल्य विद्वान, कवि, सुलेखक अथवा सम्पादकों में विवाद उपस्थित हो जाना सहज स्वाभाविक है और सदा से होता देखा गया है; अतएवं पूर्व विवाद की खोज व्यर्थ है, क्योंकि कारण दोनों का केवल अर्धक्त ही होना निश्चित है। अब यदि दो बीर मल्ल साहित्य के अखाड़े में भिड़ गये थे, तो केवल उन्हें अपने अपने दाव पेंच दिखलाने और एक दूसरे के पछाड़ने के प्रयत्न का देखना ही उदासीन सज्जनों का कार्य था, अथवा उस विवाद पर सावधानी और सभ्यता पूर्वक केवल अपनी पक्षपात-शून्य-सम्मप्ति मात्र, जैसा किसी किसी न प्रकाशित भी की थी, दे देनी ही यथेष्ट थी। परन्तु शोक से कहना पड़ता है कि इसमें तो लोगों ने दुर्लभ अवसर सा पाकर अपने अपने मन की कसक निकालते बारहमासी फाग खेलते रहे। जिसका कारण कदाचित् यही है, कि प्रशंसित दोनों सम्पादक महाशय बड़े तीन समालोचक जिनके कलम के कटार के घायलों की संख्या कदाचित् न्यून न थी, जिनमें न केवल सामान्य नागरी सेवी, सुलेख और ग्रन्थकार मात्र, वरंच अनेक समाचार-पत्र सम्पादक भी थे जिनके हृदय किसी से न्यून चुटीली न थे, इस महासंग्राम में विपक्षी दल पर यथा शक्य आक्रमण और उसे सर्वथा विध्वस्त करने में अपने साहस से पूरा पूरा कार्य लेने में कुछ भी पीछे न हटे।

विवाद का मुख्य विषय व्याकरण था, किन्तु उक्त व्याकरण से इस विवाद का बहुत ही न्यून सम्बन्ध रहा। हाँ, परस्पर एक दूसरे के लेखों की अशुद्धियाँ निकालने और उन्हें स्वयम् व्याकण से अनभिश प्रमाणित करने पर अधिक प्रयास किया गया, और उससे भी अधिक दर्वाच्यों और कर भाषण में। निःसन्देह कैसा ही बड़ा कोई विद्वान क्यों न हो और कितनी ही सावधानी से वह क्यों न लिखे, परन्तु उसमें कहीं से कुछ भी अशुद्धि न आ जाय, यह एक प्रकार असम्भव है; तब परस्पर इस सुलेखकों का एक दूसरे के लेखों में ढूँढ़ ढूँढ़ कर अशुद्धियां दिखलानी एक प्रकार व्यर्थ ही व्यापार था; क्योंकि भ्रम अथवा असावधानी से हुये कुछ दोष दिखला देने में उनका सर्वथा अयोग्य प्रमाणित हो जाना असम्भव है। इससे भी अधिक मृत मनुष्यों के अकारण दोष ढूँढ़ना घा उनकी