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प्रेमघन सर्वस्व

रास बिहारी घोष और उग्रों की ओर से पंडित बाल गङ्गाधर तिलक के लिये आग्रह था। दोनों महाशयों की योग्यता, विद्वत्ता और देश हितैषिता के विषय में किसी को कुछ वक्तव्य न था तिलक महाशय जो इस समय विवाद के मूल कारण है न केवल उग्रों के प्रधान नेता, वरञ्च वास्तव में बहुत उग्र उद्धत, निर्भय और ओजस्वी स्वभाव के मनुष्य हैं। जो प्रायः अधिकांश श्वेताङ्ग राज्याधिकारियों की आँखों में काँटे से कसकने वाले हैं। जिनका सभापति के आसन पर बैठना ही मानो काँग्रेस उग्र दल की हो जानी थी। अतएव शान्त दल डरकर उनके सभापति होने का इसलिये विरोध करता था कि फिर हम लोगों की एक भी न चलेगी और निश्चय यह राष्टीय सभा राज्याधिकारियों की कोप की तोप का लक्ष्य हो जायगी। सुतराम् अभी दो एक वर्ष गवर्नमेण्ट को कुछ कृपा दिखाने का और भी अवसर दिया जाय। यही कारण उग्र दल के निर्वाचित वा मनोनीत द्वितीय सभापति भारतभूषण पञ्जाब केशरी लाला लाजपत राय के भी विषय में शान्त दल के नेताओं के हिचकने का था, न कि उन लोगों की योग्यता में किसी प्रकार की न्यूनता, वा ईर्ष्या अथवा द्वेष से। अतः वे इस विषय में यद्यपि सर्वथा निर्दोष है, तथापि काँग्रेस में विघ्न पड़ते देख उन्हें इतना स्वीकार कर लेने के अर्थ भी तत्पर हो जाना अनुचित न था। योंही नागपुर में जब केवल तिलक महाशय के सभापति चुने जाने ही के अर्थ विरोध का दावानल भड़क उठा था, तो लाला लाजपत राय की भाँति ऐक्य बनाये रखने और देश के कल्याण के अभिप्राय से तिलक महाशय को भी इस वर्ष स्वयम् सभापति होना अस्वीकार कर उस बड़े विवाद को घटा देना था। यद्यपि वह सब प्रकार निःसन्देह इसके अधिकारी थे, तौभी जिस उदारता को दिखला लाला लाजपत राय देश के अनन्त धन्यवाद को पाकर उस प्रतिष्ठा से भी कहीं अधिक प्रतिष्ठित हुये कि जो वह सभापति होकर होते, उसी उदारता को दिखला कर मिस्टर तिलक भी देश के कहीं अधिक पूज्य हो सकते थे। क्योंकि लाला साहिब का स्वत्व मिस्टर तिलक से भी बढ़ा चढ़ा था और केवल पूर्वोक्त आशङ्का के और कोई कारण न था कि लोग उनके, इस पदप्राप्ति में चू भी करते। शान्त दल का यही सिद्धान्त था कि ऐसा करना मानो साम्राज्य का मुंह चिढ़ाना है। योंही उनके देश-निर्वासनात्मक अन्याय के आख्यान, वा राज्याधिकारियों के द्वेषारोप के महत्व के कुछ घट जाने की भी उनकी आशङ्का सर्वथा अनुचित न थी। तब एक प्रकार सभापति