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नेशनल कांग्रेस की दुर्दशा


राजनैतिक विषय को बहुत बड़े बड़े लोगों ने "निसर्ग दुर्बोध" कहा है। योंही किस कार्य के गर्भ से विधाता को कैसा फल फैलाना इष्ट है। काँग्रेस के अधिवेशन में प्रत्यक्ष देखने में आया कि—जिसे नष्ट करने के अर्थ इस विपुल भारत साम्राज्य के धुरन्धर राज्याधिकारी और उनके सहायक बड़े बड़े यत्न करके भी विफल मनोरथ रहे, फूट और बैर के प्रभाव से उस काँग्रेस का विध्वंस उसी के सहायकों के द्वारा सहजही संगठित हुआ है। जो देश सेवकों के अग्रगण्य होने की कीर्ति के भागी थे, अकस्मात् देश द्रोही प्रमाणित हो गये हैं फिर क्या यह विधि की बिडम्बना नहीं है। किसने यह आशा की थी कि अब के सूरत में पहुँच कर काँग्रेस की ऐसी लज्जास्पद दुर्दशा होगी। ईश्वरीय लीला अवश्य ही विचित्र है, जो बिना प्रयास ही असम्भव को सम्भव कर सकती है। परन्तु सामान्य विचार से फूट का फल सदा अनिष्ट ही देखने में आया है, जैसा किसी कवि का कथन है कि—"फूट के भये ते कहो कौन को भलो भयो?" भारत का फूट ही ने सर्वनाश किया है। आगे भी जो कुछ हमारे उद्धार की आशा हो सकती है, वह केवल एकता ही के द्वारा सम्भव है और जो कुछ इस समय उसका भाव समझा जाता था, उसका प्रमाण स्वरूप वही नेश्नल काँग्रेस थी, फिर उसकी ऐसी दुर्दशा देख कर शुभ लक्षण की क्या आशा हो सकती है।

किन्तु इससे भी सन्देह नहीं है कि देश में राजनैतिक जागृति का यह एक प्रबल प्रमाण है कि काँग्रेस में वास्तविक शक्ति की उत्पत्ति का बह प्रत्यक्ष उदाहरण है अथवा उसके यौवन विकास का यह प्रथम उच्छ्वास है सुतराम् ये उसके अल्लढ़पन की कुलेलें भी कुछ विचित्र नहीं। महाकवि विद्यारी लाल के कथनानुसार—"किते न औगुन जग करत बय नय चढ़ती बार" उक्त समस्त उत्तेजित अत्याचार का व्यवहार वा अटपटे उद्गार का प्रचार उसके पराक्रम और उच्च अभिलाषा के सूचक है, और जब देश में यह नवीन जागृति उत्पन्न हो गई, अथवा काँग्रेस रूपी नायिका जब मुग्धावस्था को छोड़ मध्यावस्था को प्राप्त हुई, तब उसके हाव भाव कटाक्षों से यदि उसके रसिक प्रेमियों के चित्त पर हर्षदायक वा आनन्दवर्धक प्रभाव का पड़ना सहज सुलभ है, तो प्रेम की पीर और चटपटी चोट पहुँचनी भी कुछ आश्चर्य की बात नहीं। योंही उसकी रहन-सहन, वे‌षविन्यास, प्रकृति