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प्रेमधन सर्वस्व

मोरे बाबा रे! गौवां जीन्हरी बोलाव। ओहि कुलबोरना से चिरई हँकाव।

जियरा डाहेसि है। लरिकैयँवाँ हमार।

सहृदय पाठक समझ सकते हैं कि यह कैसी कुछ अनोखी कविता है! क्या सीधे, सच्चे और लाभाविक भाव के संग अर्थ गाम्भीर्य है कि जो कवियों को सर्वथा दुर्लभ है। कई कहते कि कजली में रस अलंकार वा नायिका भेद की कमी है। वे इसे देखें और समझे भाषा तथा भाव के ग्राम्य होने ही से क्या? "अर्थ विशेष की काव्य संज्ञा है।" इसी से इसका अर्थ भी लिख देते है,—कोई नपुंसकपतिका अपने श्वसुर से कहती है कि "तेरा वंश डूबा! यह तेरा लड़का और किसी काम का नहीं है, हाँ, गाँव में जोन्हरी (मकाई) आदि बोआ दे और इसको बैठा दे कि कदाचित् यह चिड़ियाँ को वारण कर उसकी रक्षा कर सके। लड़कपन में भाँति भाँति की सेवा शुश्रषा पर भी यह ऐंठा रहता और तङ्ग किया करता था।

इली लय से निकल ओर परिमार्जित हो यह दूसरी नवीन लय प्रथम प्रकार के तृतीय विभेद की निकली है,—

फुलवा ऊमरी कै हो डरिया ओनै ओनै जाय।

इस 'कजरी' के तीन भेद किये जा सकते हैं,—एक तो वह कि जो (अ) मूल गीत ही में रह गई और कजली में सर्वथा परिगणित नहीं हुई, वरञ्च कहीं कहीं कुछ गँवारी स्त्रियाँ ही उन्हें गाती और कजरी कहती हैं। जैसे किबटियन दुबिया छिटिकि रे रहो, गैय्या चरै अनचीत, मुरली मन मोहि रे रहे।

(इ) दूसरी वह—जो हुनमुनियाँ खेल में स्वीकृत होकर निर्विवाद कजरी मानी गई और जिसका वही रूप अद्यापि स्थिर है। जैसे कि—

सात खटिश्नवाप सुखवन डारयांप सतह पजोगी धाम हो गोरी।
कुटि काटि धनवाँ घरह्य न पायों, बहरे खड़ा भैय्या मेहमान हो गोरी॥

जिससे कि "दुरंगी" की धुन निकली है।

(उ) तीसरी वह कि जो दूसरा रूप लेकर भी अभी कजरी बनौ रह गई है। अर्थात् दुनमुनियाँ में प्रचरित है और विशेष सुधर कर नागरिक सभ्य स्त्री और पुरुषों के गाने से भी सम्मानित हुई। जैसे कि प्रश्नोत्तर में—

सब केउ गैले माछरि मारै तूं काहे न गैल्यः हो ?
सब तो बाटें खाये पीये हम तो बाटौ ओइस हो॥

जो परिमार्जित होकर "साँवरि गोरिया" की धुन कहलाई यथा,

ओझला पर लागल बा महान साँवरि गोरिया।