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भारतीय नागरी भाषा

है। काला रंग भी ईरानी और अफ़गानों से यहां वालों का कुछ होता ही है, परन्तु अरबवालों से कहीं कम। आगे यहां से जो हिन्दू पकड़कर जाते थे, वहां गुलामी के लिये वेचे जाते और गुलाम कहलाते थे। आज भी अक्रिका आदि विदेश और टापुओं में यहां से कुलो जाने के कारण हिन्दुस्तानी नाम सुनकर यहां बाले कुली ही समझते, और प्रायः उतनाही उनका मान और स्वत्व भी स्वीकार करते हैं। ट्रांसवालवाले इसके उदाहरण है, मारिशस आदि के प्रवासियों की दशा सब पर विदित है। किन्तु हम नहीं समझ सकते कि चोर और डाकू से हिन्दुवों का क्या सम्बन्ध है? कहिये कि हमारे भाई भी तो अपने को आज तक हिन्दू कहते आये हैं, तो बह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ये दैवी सृष्टि के मनुष्य हैं। इतने सहनशील, भोले और उदार हैं कि कभी किसी का प्रतिवाद करना तो स्वभाव ही से नहीं जानते। अगले दिनों हमारे भाई खुशामद के मारे अपने को काफिर छोड़ क्या क्या न लिख गये हैं। जिनकी फारसी किताबें देखने से नर हेनरी इलियट के कथनानुसार यह नहीं लक्षित होता कि ये, किसी आर्यवंशी लेखक की लिखी हैं।

देश के राजा का दिया नाम भी लेना ही पड़ता है। मुसलमानी राजत्व काल में लोग अपने को हिन्दू न कहते, तो क्या करते। आज कल के 'सर' (Sir) और नाइट् (Knight) की भाँति पहले हमारे भाई मिरज़ा और मियां की भी पदवी पाते और प्रसन्नता से स्वीकार करते थे। जैसे—मिरजा मनोहर और मियां तानसेन! अब भी पंजाब के कई उच्चकुल के आर्य सन्तानों के नाम के पहिले मियां शब्द विराजता है, यथा मियां राग सिंह आदि। अगरेजों के आने पर भी वे गोरे और साहिब, और हम काले कहलाये। अपने मू से अपने को अनेक भारतीय आज भी काला कहते ही हैं, विशेषतः अगरेज़ों के शागिर्द पेशे लोग। जेता जाति के लोग जित जातिबालों को बुला की दृष्टि से सदैव देखते आये हैं। मिस्टर दादा भाई नौरोज़ जी को लार्ड सालिसबरी ने काला आदमी कहा था। पार्लियामेण्ट के मेम्बर होने की बधाई की कविता "मङ्गलाशा" में मैंने भी उन्हें काला कहा—

कारो निपटन कारो नाम लगत भारतियन।
यदपिन कारे तऊ भागिकारी विचारि मन॥
अचरज होत तुमहुँ सन गोरे बाजत कारे।