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भारतीय नागरी भाषा

के अर्थ बाध्य होना पड़ेगा। तब उस भाषा का जो सबी और के सभ्य समाज की भाषा है और जिसमें परस्पर एक प्रांत के नागरिक जन दूसरे देश का प्रांत के लोगों से वार्तालाप करते, अथवा जिस में आज पुस्तकें लिखी जाती और समाचारपत्र छपते, उसका कुछ विशेष नाम अवश्य ही होना उचित है। मैं सदा से उसे नागरी भाषा ही कहता और लिखता आया हूँ। वरच आनन्द कादम्बिनी के प्रारम्भ ही के अंक में मैंने "नागरी भाषा बा इस देश की बोल चाल" शीर्षक एक लेख लिखना आरम्भ किया था। कुछ लोग इसे अर्य्यभाषा भी कहते, परन्तु वास्तव में यह नाम भी ठीक नहीं है। मेरी समझ में इसका भारतीय नागरी भाषा नाम होना चाहिये।

कितने कहते हैं कि नागरी तो वर्णमाला का नाम है, भाषा का नहीं। किन्तु उन्हें जानना चाहिये कि भाषा और अक्षर का नित्य सम्बन्ध है। संस्कृत वा पारसी, उर्दू अंगरेजी में लिखी, कहने से उसी अक्षर का बोध होता है जिसमें वह भाषा लिखी जाती है। जैसे उदवा अँगरेजी के अक्षर अपने दूसरे नाम रखते हुए भी इन भाषाओं के साथ इन्हीं के अक्षर का अर्थ देते हैं। वैसे ही नागरी वर्णमाला का सम्बन्ध नागर वा नागरी भाषा के साथ दोनों प्रकार से अटल हो। जैसे कि पाली के अलर और भाषा दोनों का एक शब्द से बोध होता है।

महाशयो! राजधानी से भी भाषा का घनिष्ट सम्बन्ध होता है, क्योंकि जो राज भापा होती, बद्दी प्रायः नागरी वा साधु भाषा भी मानी जाती है। प्रारम्भ में देववाणी नागरी थी, और गाथा का वैदिक अपभ्रंश प्रकृत ग्राम्यभाषा थी। जव संस्कृत नागरी हुई, तब आप्राकृन सामान्य भाषा मानी जाती थी। जहाँ तक अयोध्या, प्रतिष्ठानपुर वा दिल्ली राजधानी रही, तहाँ तक प्रायः यही क्रम वर्तमान था। जनपद की वृद्धि के साथ नाथ अर्धप्राकृत का भी विस्तार और विकास हुआ मथुरा की राजधानी ने शौरसेनी का, पाटलीपुत्र ने मागधी और पाली का, यौही उज्जयिनी ने अपना की प्रतिष्ठा बढ़ाई। तौभी इन सबों के प्रधान अंशों से अलंकृत हो दह अर्ष प्राकृत ही महाराष्ट्री नाम से इस महादेश की प्रधान माया, नागर, हा ट्रभाषा बनी, अपना अधिकार जमाये थी। जैसे कि उसी का दूसरा रूप हमारीमान भाषा उसके स्थान पर नाज अपना आधिपत्य रखती है, इसका पूर्व रूप वा नाम नागर था। अर्थात् जब प्रान्तीय प्राकृतों के अपभ्रंश प्रचांग

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