पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/४२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३९१
भारतीय नागरी भाषा

कहता, तो शाहनामा ग्रन्थ न बनता। महाराज जयासिंह से प्रत्येक दोहे के अर्थ एक एक सहम मुद्रा पाने की आशा न होती, तो बिहारी के इतने दोहों में यह स्वारत्य सर्वथा दुर्लभ होता। यदि एक कवित्त को चौंसठ बार सुनकर शिवाजी भूषण को ६४ हाथी पर ६४ तोड़े रुपये के धरकर न देता, तो भूषण की कविता में यह ओज कब आता? वह कवित्त यह है,—

"चारो दिसा दल के बल जीति कै पच्छिम चंगुल दाबि के नाखे।
रूप गुमान हरयो गुजरात को, सूरत को रस रिकै चाखे।
पंजन दाबि मलेच्छ मले, भजि वेई बचे जे अधीन है मारने
मौरंग है शिवराज बली जिन नौरंग में रंग एक न राखे॥

यही सम्बन्ध पृथ्वीराज और चन्द बरदाई, इन्द्रजीत और केशव, तथा नवाब खानिखानां और पण्डितराज जगन्नाथादि का भी समझना चाहिये। लोग ऊपर के दानों को सुनकर आश्चर्य्यं करेंगे, किन्तु अभी कल की बात है कि, यशवन्त यशो भूषण ग्रन्थ के लिये महाराज जोधपुर ने कविराज मुरारि दान को एक लाख रुपये दिये हैं। तौभी यही कहना होगा कि आज हमारी भाषा का गुणग्राहक राजा कोई नहीं है, क्योंकि किसी राजा के यहाँ कोई सुकवि वा सुलेखक सुनाई नहीं देता। अंगरेजी गवर्नमेण्ट को तनिक सी कृपा के परिणाम से हमारी भाषा में बहुतेरे ग्रन्थ बने हैं। चाहे उनमें से अधिकांश बहुमूल्य न भी हो और चाहे वे उसके प्रधान कार्मचारियों के दुराग्रहयुक्त आदेश के अनुसार होने से, हमें वास्तविक फलप्रद न होने से अच्छे न अँचे। हैदराबाद और रामपुर के राज्यों द्वारा उर्दू भाषा की बहुत अधिक वृद्धि हुई और अनेक अच्छे ग्रन्थ बन गये हैं। यद्यपि अब समय ने पलटा खाया है दूसरे दूसरे प्रकार से कुछ नरपतियों में हमारी भाषा के प्रचार की अभिरुचि हुई है—श्रीमन्महाराज सबाजी राव गायकवाड़ जिनके शिरोमणि है—तौभी प्राचीन रीति के अनुसार अच्छे सुलेखक और सुकवियों के अर्थ हम देश में कोई आश्रय नहीं है। पत्र और पुत्तकै उचकर लाभ उठानेवाली च्यापारिक प्रणाली उच्च हृदय के लोगों में प्रायः अनहोनी है कि जिन्हें आप अपनी ही सुध नहीं रहती और जो किमी दूसरे ही ध्यान में चूर

अस्तु, अकबर से लेकर शाहनहां के राजत्व काल तक यही दशा वत्तमान थी। देश में शान्ति थी, राजा प्रजा में इर्षा द्वेष का भाव भी घर चला था। हमारे साहित्य की गति भी पूर्ववत् थी। शाहजहाँ भी अकबर