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प्रेमघन सर्वस्व

उस भाषा के नाते अमृत बाज़ार पत्रिका; हिन्दू, वा ऐडवोकेट् को छोड़ चाहे अखबारि-आम, अवध अखबार, वा अवध पञ्च का क्रय करें, और लेख द्वारा उनकी निरन्तर सहायता करें, किन्तु भारतमित्र, हिन्दी वङ्गवासी वा हिन्दोस्थान में भी उन के नाम को स्थान मिले, यह एक प्रकार आश्चर्य ही है। सम्भव है कि हमारे पूर्वोक्त मत के विरूद्ध कदाचित् कोई दो चार नाम बतला सके? परन्तु क्या इतने बड़े देश और जन समुदाय में वह संख्या गणना के योग्य होगी, जिसका पड़ता लाख में एक का पड़ता है? फिर कहिये तो, यह कितने बड़े आश्चर्य, आक्षेप और परिताप का विषय है? क्या किया जाय कि हमारे भाई हमारे और हमारी शब्द के अर्थही को भूल' गए हैं! वे सब प्रकार पराये हाथों बिक पराये बन गए हैं? ईश्वर उनपर शीघ्र कृपाकरे। यदि कोई कहे, कि—"साहिब हिन्दी पत्रों में कुछ हो भी, मुक्त क्यों कोई अपना रूपया और समय नष्ट करे।" तो इसका यही सहज उत्तर है, कि यह सब श्रापही लोगों का दोष है, क्योंकि बिना गुणग्राहक गुण की वृद्धि कदापि नहीं होती।

लोग कह बैठेगे कि "महाशय! यह आप क्या कह रहे हैं? अब तो वह दिन नहीं है कि जब आप लोग इने गिने चार जने सम्पादक उपाधिवान हो अभिमान करते थे, वरंच अब तो यह पदवी हर हाटों में टके सेर लग रही है। और हिन्दी के कोड़ियों पत्र और पत्रिकायें कौड़ियों के भाव बिक रही हैं। किसी को कुछ उपालम्भ नहीं है, आप आये, और लगे वही पुरानी तान अलापने। तनिक आँख उठाकर देखिये तो, तब से अब में कितना भेद है?" हाँ, इसमें सन्देह तो नहीं, कि संख्या पत्रों की अधिक हो गई है, और ग्राहक संख्या भी आगे से अवश्य ही अधिक हुई होगी; परन्तु इससे किसी हिन्दी पत्र की कदाचित् ही स्पृहणीय दशा हुई हो, उसे हम नहीं जानते। दो एक पत्र जो अच्छी दशा में हैं, उनमें भी स्थान और कृत्य की विशेषता ही कारण है, जो व्यापार सलभ शैली के अवलम्बन से एकान्त सम्बन्ध रखता है, और जिसके अनुकरण के हम लोग सर्वथा और सर्वदा से विरोधी है। हम लोग सर्व सामान्य को प्रसन्न कर धन सञ्चय करने से अपने को कृतकृत्य नहीं मानना चाहते, किन्तु विशेष जनों को चाहे उनकी संख्या अविशेष ही क्यों न हो विशेष प्रयत्न से विशेष प्रसन्न करना ही अपना विशेष लाभ समझते हैं। इसीलिए विशेषतः विशेषता ही का ध्यान रहता, और चाहते कि यदि कुछ विशेषता की समा ला सके, तब तो सब प्रयत्न ठीक है, नहीं उससे तो चुपचाप बैठे ही