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प्रेमघन सर्वस्व

के चिर कृतश हैं और सदैव रहेंगे, किन्तु वे यह समझ कर अति चिन्तित और व्यग्र होने लगे कि—

विलायती प्रजा मण्डली प्रायः चारोवर्णं और छतीसो जाति के काय करके इस देश के अन्न घन को चूस अपने पेट पालती है। इस देश के सत्र प्रकार के उद्यस और व्यापार तथा उच्च सेवा पर भी केवल उन्हीं सबों का अधिकार है, जिस कारण अब यहाँ के लोग सब प्रकार निकम्मे और दरिन्द्र, रोटियों के दःख से मरते और विदेशी उनके भाग को खा खा कर मदान्ध होते जाते हैं। शासक लोग केवल यहाँ कुछ दिनों के लिये पाते, उनमें जो न्यायी और उदार होते यथाशक्ति हमारे हित के विषय में भी कुछ उद्यग करते किन्तु यदि उससे भारतीयों का कुछ वास्तविक लाम सम्भव होता, दूसरे सकीण हृदय अधिकारी आकर उसे मटियामेट कर देते और जिससे उत्त के देश निवासियों के स्वत्व में हानि पहुँचे, ऐसे कर्य करने का तो किमी को साहस ही कब हो सकता है! यो यद्यपि राजप्रतिनिधि और शासकों को अपने कार्य से शासित और शासनका उभयपक्ष की प्रजाओं को प्रसन्न करना सर्वथा असम्भव है, तो भी उदार शासकों के द्वारा जो कुछ इस देश का हित हुआ है, उसके धन्यवाद के सहित, उच्च राजकर्मचारियों तथा स्वर्गीया महारानी विक्टोरिया की उदार आशाओं और वरदानों के बल पर, जिसे वे वेद वाक्य'सा सत्य और अटल तथा जिसपर वे अपनी सब उन्नति की आशा रखते; उचित रीति से अपने दुख और आवश्यकताओं की पुकार मंचाने लगे। जिसकी चिल्लाहट को सुन अनेक संकीर्ण हृदय राजकर्मचारियों को आश्चर्य होने लगा कि यह विपरीत वायु कैसा वह चला।

क्योंकि गवर्नमेएट ने जब यहाँ अँगरेजी भाषा की शिक्षा का प्रचार किया, इसलिए कि किसी देश में विदेशी राजा को तब तक उसके शासन में सुविधा नहीं होती, जब तक कि वह निज भाषा का प्रचार उस देश में न करें, तो बहुतों को यह आशा थी कि लोग अँगरेजी पढ़कर निज व कर्म से अश्रद्धा प्रकट करते, अपने अचार विचार से मुख मोड़ेंगे। इनके बिचार में अँगरेज़ों का गौरव और उनके राज्य का महत्व अधिक होगा। अँगरेजों को देवता और अपने को हिन्दुस्तानी लोग जङ्गली और असम्ध समझेगे, वेदों को पुरानी गँवारी गीत और शास्त्रों को ब्राह्मणों का भोले हिन्दुओं के फंसाने का बागजाल मान, ईसाई मत की उत्कृष्टता देखकर उस पर मोहित हो क्रस्तान हो जायेंगे! यद्यपि कुछ न कुछ ऐसा ही हुआ, तौभी