पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/५६९

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पंच का विज्ञापन

नोट:—[कवि वचन सुधा में (२५ जून १८७७) में निकला था केवल लेखन शैली का द्योतक यह "पत्र का विज्ञापन" इस ग्रन्थ में सनिविष्ट कर दिया गया है]—स॰

सब से पहिले उसी को प्रणाम जिसने पचतत्व से यह प्रपच खड़ा किया और पचविंशति तत्वों मे पाँच-पाँच बेर दिखाई दिया। इस पचक्रोशात्मक पचानन वाहिनी क्षेत्र मे कोई हास्यरस का ऐसा प्रपंच नहीं जिसके पढ़ते ही एक कान क्या पंचज्ञानेद्री पंचामृत से लथपथ होकर, स्वर्ग से पाँचही अगुल दूर बच जाय और पचाङ्ग की भाँति अपनी करनी पार उतरनी' सब को उसी में सूझे। इस हेतु मित्रों की पंचायत से यह हुकुम निकला कि एक पंच पत्र हिन्दी में छपै, छपै भी कैसा कि पढ़ते ही पेट को चाहे नगाड़े की तरह बजालो, पचलौन बिना हंसी पचै ही नही।

यह निश्चय होकर प्रकाश किया जाता है कि आगे से पचदश दिन पीछे प्रति पंचमी को यह पच छपै और सारे पचों का सरपंच बन कर एक बेर जिसकी आँख मे जाय उसके मुख से सिवाय हह के और कुछ न निकले। इसमे कोई संदेह नहीं कि सभ्य मर्यादा से पाँच अँगुली बाहर न निकाल कर ऐसा पंचम छेड़ना की लोग गग न लाकर अनुराग करै, बहुत कठिन है। हो तो पचमकार का निषेध पर लोग सुनते ही मानो रमपच (Rum punch) पीलें और पचवान के वेधे हुए पंचभूत अंत न होकर सुमार्ग पर चलें, बहुत ही वरन फौलाद से भी विशेष कठिन है। प्रायः ऐसे विषय जिनसे परिहास हो पच महापाप के मूल होते हैं, और इसी के दिखाने को आज इस पच का जन्म समाचार लोगों को दिया जाता है कि नही ऐसा भी लेख हो सकता है जिससे हँसते हँसते ससार का भला हो। अभी तो यह कहना लपोड़सखी है पर अब विद्या के महाभारत में परीक्षा होगी तब मालूम होगा कि सपोड़सख थे या पाँचजन्य‌ हृदय के पचपात्र मे सुनते ही पच पल्लव बहलहा पावै और लोग अपने बुरे कर्मों का इसको पचगव्य और पचतीर्थी समझे यही इच्छा है—आगे जो हो। पच प्राण इससे संतुष्ट होकर तुष्ट

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