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प्रेमघन सर्वस्व

कहैं" हो सका तो आगामि अंक में क्योंकि पेशगी पोस्टेज पोस्टआफिस गटकता जाता, प्रेस के कर्मचारी चाहे बैठे रहैं पर २९ तारीख को पाना पाई शुद्ध चुकता चुकाते हैं, हमें लेख ऐसे मिल जाते, कि जो लिखने में शैतान कीआंत बनजाते, ग्राहक गण उगताते और तकाज़ों की झड़ लगाते, हम पत्रोत्तर भी हज्म जाते, क्योंकि आपी बताइये कि हम "क्या कहैं"? निदान आशा वही है, देखा चाहिये कि अब आगामि में "क्या कहै" गे। रहा "सुनै"। सो अाशा है कि आप सबसे यह सुनै कि—हाँ अब तो आप सब तरह ठीक हो गये। विशेष क्षमा प्रार्थना।

आज तक अवश्य दोषी मैनेजर