पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/६०

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हश्य, रूपक वा नाटक


यद्यपि कुछ दिन से यहाँ नाटकों का प्रचार हो चला, पर तो भी ऐसा नहीं जैसा चाहिये; देखिये कि इसी भारत भूमि में एक दिन इसका ऐसा प्रचार था कि जैसा समस्त संसार में नहीं; कालीदास, भवभूति, श्रीहर्ष से महाकवियों ने अपनी विद्या बुद्धि और कविता शक्ति को सावधान हो प्रायः बड़े बड़े उत्तम और मनोहर नाटकों ही के रचना में व्यय कर डाला; और असंख्य कवियों के सहस्त्रावधि नाटक उत्तम श्रेणी के बन गये। जो यवनों के इतने उत्पात और उपद्रव पर भी आज गए बीते दिन पर सैकड़ों नाटक संस्कृत के हमें देखने में आते, और पूर्व समय के दशा की साक्षी देते तथा उस उन्नति की याद दिलाते हैं। बड़े बड़े महाराजाओं और महाजन, साहूकारे और विद्वानों के मन के बहलाव क्या, किन्तु चित्त के सन्तोष के कारण थे और सदैव सभ्यों के समाज और नरेशों के दरबार तथा हर्ष के कार्यों में इसी से काम रहता, बड़े बड़े गुणी चारण, कथक वा वेश्या, जिन्हें अपनी चतुराई की चमत्कारी दिखानी होती नाट्य में प्रवृत्त होते; और इससे उत्तम दूसरी कोई रीति भी न थी कि जिससे उन्हें उत्तम प्रकार से जीविका प्राप्त होती।

चतुर और उत्साही राजकुमारों को वीरता के नाट्य में खेल का सुख, और राजकुमारियों के महलों के नाट्यालयों में इस विद्या में अभ्यास के लिए सदा उत्साह और व्यसन सा हो गया था।

समस्त प्रकार से यही मुख्य और सभ्य तथा शिक्षादाई उत्साह का उपजाने बाला, राग रंग की सभा और तमाशा मात्र का शिरोमणि समझा जाता हुआ यहाँ प्रचलित रहा।

परन्तु यवनों के कृपा से, दश वर्ष पूर्व यहाँ इसे यह भी नहीं जानते थे कि किस जानवर का नाम है, केवल संस्कृत के बड़े-बड़े विद्वानों की गणना हम नहीं करते परन्तु उन्हें भी अभिनय अर्थात् तमाशा देखने के आनन्द का ज्ञान न था, पर अब धीरे-धीरे कलकत्ता और बम्बई के बंगाली और पार्सी लोगों तथा गुजराती,और महाराष्ट्रों ने भी इसका प्रारम्भ किया और कुछ कुछ स्वाद लोगों को अनुभव कराया पर निःसंदेह गुजराती और महाराष्ट्रों की वीर

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