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दृश्य, रूपक या नाटक

नाट्य प्रणाली अच्छी है परन्तु सामग्री इत्यादि बिल्कुल नष्ट और भ्रष्ट है बहुत ही कम नाट्यलय के रङ्गभूमि तथा परदे अच्छे हैं और बड़े बड़े बखेड़ों की कौन गणना है। बङ्गालियों के नाटक और उनके विषय भाव तथा कविता उत्तमोत्तम, नृत्य वाद्य नाट्य भी अच्छा, और भी सामान अच्छेई हैं परन्तु तो भी पारसियों से उत्तम नहीं।

इनके परदे और नाट्यालय के सजावट के साज, सुन्दर और सजीले, अभिनय के चारों गुण से युक्त पात्र, और उनकी समस्त प्रकार की बनक, हाव, भाव, कटाक्ष, कहाँ तक गिनावें सभी अच्छा है। केवल भाषा अभी अच्छी तरह शुद्ध और साफ नहीं है। सो भी यदि अन्य भाषा कि जिसे वे काम में लाये हैं ध्यान किया जाय तो इस कठिनाई के आगे उस न्यूनता का होना आश्चर्य नहीं, रही यह बात कि उन लोगों ने उर्दू बोली की जो इस देश में सदा हीन और दीन रही है, उसी से कार्य साधन का करना चाहा है-यह अवश्य कथनीय है।

यद्यपि योरपीय देश के इस विषय में उन्नति का वर्णन करना हमें आवश्यक नहीं पर तो भी जैसे अनन्य महाकवि शेक्सपीयर की कविता है, कि जिसके देखने से निश्चय होता है कि न, जाने कालिदास सैर करता कहीं विलायत में जा वहाँ अपने नाम के संग कविता की चाल भी तो नहीं बदल डाली और संस्कृत में कविता शक्ति दिखा कर भी न तृप्त हो, अंगरेजी सी भ्रष्ट विद्या में अपनी करामात दिखा कर प्रतिष्ठा क्या दिया, मानों विचारों के भाग जागे।

तो जब उसी काल में ऐसे कवियों के बनाये नाटक कि जो मनोहरपन से पूर्ण हैं बन गये, और जहाँ तब से नित्य नई उन्नति होती रही; तहाँ के उन्नति की दशा का आज वर्णन करना मानों इस पत्र को और विषय से शून्य करना है।

निदान अब जो देखा देखी, एतद्देशीयों को जो उत्साह उत्पन्न हुना, तो धीरे धीरे हिन्दी में भी नाटक लिखना लोगों ने प्रारम्भ किया और बहतेरे युवक जब अभिनय के हेतु कहीं कहीं छोटी छोटी मण्डलियाँ भी नियत की और एक आध जगह दो चार नाटकों के अभिनय भी हुए; पर यह काम तो ऐसे छोटे उत्साह का नहीं-और अधिकतर जो यहाँ के लोग प्रायः प्रारम्भ शूर हुआ करते हैं, अतएव अब फिर वही पूर्ववत सन्नाटा खींच लोग चुप हो