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प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ

'किसके रुपये और कैसे रुपये?'

'मैं कहे देता हूँ विक्रम, हमारी दोस्ती का ही अन्त हो जायगा; बल्कि इससे कहीं भयंकर परिणाम होगा।'

हिंसा की एक ज्वाला-सी मेरे अन्दर दहक उठी।

सहसा दीवानखाने में झड़प की आवाज सुनकर मेरा ध्यान उधर चला गया। यहाँ दोनों ठाकुर बैठा करते थे। उनमें ऐसी मैत्री थी, जो आदर्श भाइयों में हो सकती है। राम और लक्ष्मण में भी इतनी ही रही होगी। भड़प को तो बात ही क्या, मैने उनमें कभी विवाद होते भी न सुना था। बड़े ठाकुर जो कह दें, वह छोटे ठाकुर के लिए कानून था और छोटे ठाकुर की इच्छा देखकर ही बड़े ठाकुर कोई बात कहते थे। हम दोनों को आश्चर्य हुआ। दीवानखाने के द्वार पर जाकर खड़े हो गये। दोनों भाई अपनी-अपनी कुरसियों से उठकर खड़े हो गये थे, एक-एक कदम आगे भी बढ़ पाये थे, आँखें लाल, मुख विकृत, त्योरियाँ चढ़ी हुई', मुट्टियाँ बँधी हुई। मालूम होता था, बस हाथा-पाई हुआ ही चाहती है।

छाटे ठाकुर ने हमें देखकर पीछे हटते हुए कहा-सम्मिलित परिवार में जो कुछ भी और कहीं से भी और किसी के नाम भी आये, वह सबका है, बराबर।

बड़े ठाकुर ने विक्रम को देखकर एक कदम ओर आगे बढ़ाया-हरगिज नहीं; अगर मै कोई जुर्म करूँ, तो मैं पकड़ा जाऊँगा, सम्मिलित परिवार नहीं। मुझे सजा मिलेगी, सम्मिलित परिवार को नहीं। यह वैयक्तिक प्रश्न है।

'इसका फैसला अदालत से होगा।'

'शौक से अदालत जाइए; अगर मेरे लड़के मेरी बीवी, या मेरे नाम लॉटरी निकली तो आपका उससे कोई सम्बन्धन होगा, उसी तरह जैसे आपके नाम लॉटरी निकले, तो मुझसे, मेरी बीवी से या मेरे