'जानते ही हैं, तीस साल तक वकालत नहीं की है?
यह वकालत निकल जायगी, जब सामने कलकत्ते का बैरिस्टर खड़ा कर दूंँगा।
'बैरिस्टर की ऐसी-तैसी, चाहे वह कलकत्ते का हो या लन्दन का!'
'मैं आधा लूँगा, उसी तरह जैसे घर की जायदाद में मेरा आधा है।'
इतने में विक्रम के बड़े भाई साहब सिर और हाथ में पट्टी बाँधे, लँगड़ाते हुए, कपड़ों पर ताजे खून के दाग लगाये, प्रसन्न-मुख आकर एक पाराम-कुरसी पर गिर पड़े। बड़े ठाकुर ने घबड़ाकर पूछा-यह तुम्हारी क्या हालत है जी! ऐं, यह चोट कैसे लगी? किसी से मार-पीट तो नहीं हो गयी?
प्रकाश ने कुरसी पर लेटकर एक बार कराहा, फिर मुसकराकर बोले-जी, कोई बात नहीं, ऐसी कुछ बहुत चोट नहीं लगी।
'कैसे कहते हो चोट नहीं लगी? सारा हाथ और सिर सूज गया है। कपड़े खून से तर। यह मुआमला क्या है? कोई मोटर-दुर्घटना तो नहीं हो गयी
'बहुत मामूली चोट है साहब, दो-चार दिन में अच्छी हो जायगी। 'घबराने की कोई बात नहीं।'
प्रकाश के मुख पर आशापूर्ण, 'शान्त मुस्कान थी। क्रोध, लज्जा वा प्रतिशोध की भावना का नाम भी न था।
बड़े ठाकुर ने और व्यग्र होकर पूछा-लेकिन हुश्रा क्या, यह क्यों नहीं बतलाते? किसी से मार-पीट हुई हो, तो थाने में रपट करवा दूंँ।
प्रकाश ने हलके मन से कहा -मार-पीट किसी से नहीं हुई साहब! बात यह है कि मैं जरा झक्कड़ बाबा के पास चला गया था। आप तो जानते है, वह आदमियों की सूरत से भागते हैं और पत्थर लेकर मारने दौड़ते हैं। जो डरकर भागा, वह गया। जो पत्थर की चोटें खाकर भी उनके पीछे लगा