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लॉटरी


रहा, वह पारस हो गया। वह यही परीक्षा लेते हैं। आज मैं वहाँ पहुँचा, तो एक पचास आदमी जमा थे, कोई मिठाई लिये, कोई बहुमूल्य भेंट लिये, कोई कपड़ों के थान लिये। झक्कड़ बाबा ध्यानावस्था में बैठे हुए थे। एकाएक उन्होंने आँखें खोली और यह जन-समूह देखा, तो कई पत्थर चुनकर उनके पीछे दौड़े। फिर क्या था, भगदड़ मच गयी। लोग गिरते-पड़ते भागे। हुर्र हो गये। एक भी न टिका। अकेला मै घंटाघर की तरह वहीं डटा रहा। बस उन्होंने पत्थर चला ही तो दिया। पहला निशाना सिर में लगा। उनका निशाना अचूक पड़ता है। खोपड़ी भन्ना गयी। खून की धारा बह चली। लेकिन मै हिला नहीं। फिर बाबाजी ने दूसरा पत्थर फेंका। वह हाथ में लगा। मैं गिर पड़ा और बेहोश हो गया। जब होश आया, तो वहाँ सन्नाटा था। बाबाजी भी गायब हो गये थे। अन्तर्ध्दान हो जाया करते हैं। किसे पुकारू, किससे सवारी लाने को कहूँ। मारे दर्द के हाथ फटा पड़ता था और सिर से अभी तक खून जारी था। किसी तरह उदा और सीधा डाक्टर के पास गया। उन्होंने देखकर कहा-हड्डी टूट गयो है। और पट्टी बाँध दी। गर्म पानी से सेंकने को कहा है। शाम को फिर आवेंगे। मगर चोट लगी तो लगी; अब लॉटरी मेरे नाम आयी धरी है। यह निश्चय है। ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि झक्कड़ बाबा की मार खाकर कोई नामुराद रह गया हो। मैं तो सबसे पहले बाबा की कुटी बनवा दूंँगा।

बड़े ठाकुर साहब के मुख पर संतोष की झलक दिखायी दी। फौरन् पलंग बिछ गया। प्रकाश उस पर लेटे। ठकुराइन पंखा झलने लगी, उनकामुख भी प्रसन्न था। इतनी चोट खाकर दस लाख पा जाना कोई बुरासौदा न था।

छोटे ठाकुर साहब के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। ज्योंही बड़े ठाकुर भोजन करने गये, और ठकुराइन भी प्रकाश के लिए भोजन का प्रबंध करने गयीं, त्योंही छोटे ठाकुर ने प्रकाश से पूछा-क्या बहुत जोर से पत्थर मारते हैं? जोर से तो क्या मारते होंगे?