है! चाहे कोई मर ही जाय, पर उठने का नाम नहीं लेते! नौज कोई तुम-जैसा आदमी हो!
मिर्जा-क्या कहूँ, मीर साहब मानते हो न थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ।
बेगम-क्या जैसे वह खुद निखट्टू हैं, वैसे ही सबको समझते हैं? उनके भी तो बाल-बच्चे हैं; या सबका सफाया कर डाला?
मिर्जा-बड़ालती आदमी है। जब आ जाता है, तब मजबूर होकर मुझे भी खेलना ही पड़ता है।
बेगम-दुत्कार क्यों नहीं देते?
मिर्जा-बराबर के आदमी हैं, उम्र में, दर्जे में मुझसे दो अगुल ऊँचे। मुलाहिजा करना ही पड़ता है।
बेगम-तो मैं ही दुत्कारे देती हूँ। नाराज हो जायँगे, हो जायँ। कौन किसी की रोटियाँ चला देता है। रानी रूठेंगी, अपना सुहाग लेंगी। हिरिया, जा, बाहर से शतरंज उठा ला। मीर साहब से कहना, मियाँ अब न खेलेगे, आप तशरीफ ले जाइए।
मिर्जों-हाँ-हाँ, कहाँ ऐसा गजब भी न करना! जलील करना चाहती हो क्या! ठहर हिरिया कहाँ जाती है।
बेगम-जाने क्यों नहीं देते। मेरा ही खून पिये, जो उसे रोके। अच्छा, उसे रोका, मुझे रोको, तो जानूँ।
यह कहकर बेगम साहबा झल्लायी हुयी दीवानखाने की तरफ चली। मिर्जा बेचारे का रंग उड़ गया। बीबी की मिन्नतें करने लगे-‘खुदा के लिए, तुम्हें हजरत हुसेन की कसम। मेरो ही मैयत देखे, जो उधर जाय! लेकिन बेगम ने एक न मानी। दीवानखाने के द्वार तक मूयी पर एका-एक पर-पुरुषः के सामने जाते हुए पाँव बँध-से गये। भीतर झाँका। संयोग से कमरा खाली था। मीर साहब ने दो एक मुहरे इधर-उधर कर