इमाहिम की पीठ पर घोड़े ने टाप रख दी। वह अचेत जमीन पर पड़े थे। इन आदमियों का शोर-गुल सुनकर आप-ही-आप उनकी आँखें खुल गयीं। एक युवक को इशारे से बुलाकर कहा-क्यों कैलाश, क्या कुछ लोग शहर से आ रहे हैं?
कैलाश ने उस बढ़ती हुई घटा की ओर देखकर कहा-जी हाँ, हजारों आदमी हैं।
इब्राहिम-तो अब खैरियत नहीं है। झण्डा लौटा दो। हमें फौरन लौट चलना चाहिए, नहीं तूफान मच जायगा। हमें अपने भाइयों से लड़ाई नहीं करनी है। फौरन लौट चलो।
यह कहते हुए उन्होंने उठने की चेष्टा की, मगर उठ न सके।
इशारे की देर थी। संगठित सेना की भाँति लोग हुक्म पाते ही पीछे फिर गये। झण्डियों के बॉसों, साफों और रूमालों से चटपट एक स्ट्रेचर तैयार हो गया। इब्राहिम को लोगों ने उस पर लिटा दिया और पीछे फिरे; मगर क्या वह परास्त हो गये थे? अगर कुछ लोगों को उन्हें परास्त मानने में ही सन्तोष हो, तो हो; लेकिन वास्तव में उन्होंने एक युगान्तरकारी विजय प्राप्त की थी। वे जानते थे, हमारा संघर्ष अपने ही भाइयों से है, जिनके हित परिस्थितियों के कारण हमारे हितों से भिन्न हैं। हमें उनसे वैर नहीं करना है। फिर, वह यह भी नहीं चाहते थे कि शहर में लूट और दंगे का बाजार गर्म हो जाय और हमारे धर्मयुद्ध का अन्त लूटी हुई दूकानें और टूटे हुए सिर हो। उनकी विजय का सबसे उज्ज्वल चिन्ह यह था कि उन्होंने जनता की सहानुभूति प्राप्त कर ली थी। वही लोग, जो पहले उन पर हँसते थे, उनका धैर्य और साहस देखकर उनको सहायता के लिए निकल पड़े थे। मनोवृत्ति का यह परिवर्तन ही हमारी असली विजय है। हमें किसी से लड़ाई करने की जरूरत नहीं, हमारा उद्देश्य केवल जनता की सहानुभूति प्राप्त करना