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जुलूस


है, उसकी मनोवृत्तियों को बदल देना है। जिस दिन हम इस लक्ष्य पर पहुँच जायेंगे, उसी दिन स्वराज्य-सूर्य उदय होगा।

(३)

तीन दिन गुजर गये थे। बीरबलसिंह अपने कमरे में बैठे चाय पी रहे थे और उनकी पत्नी मिट्ठन बाई शिशु को गोद में लिये सामने खड़ी थीं।

बीरबलसिंह ने कहा-मैं क्या करता उस वक्त। पीछे डी० एस० पी० खड़ा था। अगर उन्हें रास्ता दे देता, तो अपनी जान मुसीबत में फंसती।

मिट्ठन बाई ने सिर हिलाकर कहा-तुम कम-से-कम इतना तो कर ही सकते थे कि उन पर डण्डे न चलाने देते। तुम्हारा काम आदमियों पर डण्डे चलाना है? तुम ज्यादा-से-ज्यादा उन्हें रोक सकते थे। कल को तुम्हें अपराधियों को बेंत लगाने का काम दिया जाय, तो शायद तुम्हें बड़ा आनन्द आयेगा, क्यों?

बीरबलसिंह ने खिसियाकर कहा-तुम तो बात नहीं समझती हो।

मिट्ठन बाई-मैं खूब समझती हूँ। डी० एस० पी० पीछे खड़ा था। तुमने सोचा होगा, ऐसी कारगुजारी दिखाने का अवसर शायद फिर कभी मिले या न मिले। क्या तुम समझते हो, उस दल में कोई भला आदमी न था? उसमें कितने आदमी ऐसे थे, जो तुम्हारे-जैसों को नौकर रख सकते हैं। विद्या में तो शायद अधिकांश तुमसे बढ़े हुए होंगे, मगर तुम उन पर डण्डे चला रहे थे, और उन्हें घोड़े से कुचल रहे थे, वाह री जवाँमर्दो!

बीरबल ने बेहयाई की हँसी के साथ कहा-डी० एस० पी० ने मेरा नाम नोट कर लिया है। सच!

दारोगाजी ने समझा था, यह सूचना देकर वह मिट्ठन बाई को खुश कर देंगे। सजनता और भलमनसी आदि ऊपर की बातें हैं, दिल से