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पृष्ठ:प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां.djvu/५७

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दो बैलों का कथा

'मैं तो अब घर भागता हूँ।'

'यह जाने देगा!'

'इसे मै मार गिराता हूँ।'

'नहीं-नहीं, दौड़कर थान पर चलो। वहाँ से हम आगे न जायेंगे।'

दोनों उन्मत्त होकर बछड़ों की भाँति कुलेलें करते हुए घर की ओर दौड़े। वह हमारा थान है। दोनों दौड़कर अपने थान पर आये और खड़े हो गये। दढ़ियल भी पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था।

झूरी द्वार पर बैठा धूप खा रहा था। बैलो को देखते ही दौड़ा और उन्हें बारी-बारी से गले लगाने लगा। मित्रों की आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे। एक झूरो का हाथ चाट रहा था।

दढ़ियल ने जाकर बैलों की रस्सियाँ पकड़ ली।

भूरी ने कहा-मेरे बैल हैं।

'तुम्हारे बैल कैसे? मै मवेशीखाने से नीलाम लिये आता हूँ।'

मै तो समझता हूँ, चुराये लिये आते हो। चुपके से चले जाओ। मेरे बैल हैं। मै बेचूंँगा, तो बिकेंगे। किसी को मेरे बैल नीलाम करने का क्या अख़तियार है!

'जाकर थाने में रपट कर दूंँगा।'

'मेरे बैल हैं। इसका सबूत यह है कि मेरे द्वार पर खड़े हैं।'

दढ़ियल झल्लाकर बैलों को जबरदस्ती पकड़ ले जाने के लिए बढ़ा। उसी वक्त मोती ने सींग चलाया। दढ़ियल पीछे हटा। मोती ने पीछा किया। दढ़ियल भागा। मोती पीछे दौड़ा। गाँव के बाहर निकल जाने पर वह रुका; पर खडा दढ़ियल का रास्ता देख रहा था। दढ़ियल दूर खड़ा धमकियाँ दे रहा या, गालियाँ निकाल रहा था, पत्थर फेंक रहा था। और मोती विजयो शूर की भाँति उसका रास्ता रोके खड़ा था। गाँव के लोग तमाशा देखते थे, और हँसते थे।