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पृष्ठ:प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां.djvu/६७

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रामलीला

'आप अगर २) दे दें, तो मैं उन्हें दे आऊँ। इतने में शायद वह घर पहुँच जायँ।'

पिताजी ने तीव्र दृष्टि से देखकर कहा-जाओ, अपनी किताब देखो। मेरे पास रुपये नहीं हैं।

यह कहकर घोड़े पर सवार हो गये। उसी दिन पिताजी पर से मेरी श्रद्धा उठ गयी। मैंने फिर कभी उनकी डाँट-डपट की परवाह नहीं की। मेरा दिल कहता-आपको मुझे उपदेश देने का कोई अधिकार नही है। मुझे उनकी सूरत से चिढ़ हो गयी। वह जो कहते,मैं ठीक उसका उलटा करता। यद्यपि इससे मेरी ही हानि हुई, लेकिन मेरा अन्तःकरण उस समय विप्लवकारी विचारों से भरा हुआ था।

मेरे पास दो आने पैसे पड़े हुए थे। मैंने पैसे उठा लिये और जाकर शरमाते-शरमाते रामचन्द्र को दे दिये। उन पैसों को देखकर रामचन्द्र को जितना हर्ष हुआ, वह मेरे लिए आशातीत था। टूट पड़े, मानो प्यासे को पानी मिल गया।

वह दो आने पैसे लेकर तीनों मूर्तियाँ बिदा हुई। केवल मैं ही उनके साथ कस्बे के बाहर पहुँचाने आया।

उन्हें बिदा करके लौटा, तो मेरी आँखें सजल थी; पर हृदय आनन्द से उमड़ा हुआ था।