और सीता बैठे रो रहे थे, और रामचन्द्र खड़े काँधे पर लुटिया-डोर डाले उन्हें समझा रहे थे। मेरे सिवा वहाँ कोई न था। मैंने कुण्ठित स्वर में रामचन्द्र से पूछा-क्या तुम्हारी बिदाई हो गयी?
रामचन्द्र-हाँ, हो तो गयी। हमारी बिदाई ही क्या? चौधरी साहब ने कह दिया, जाओ, चले जाते हैं।
'क्या रुपये और कपड़े नहीं मिले?'
'अभी नहीं मिले। चौधरी साहब कहते हैं इस वक्त बचत में रुपये नहीं है। फिर पाकर ले जाना।'
'कुछ नहीं मिला?'
'एक पैसा भी नहीं। कहते हैं, कुछ बचत नहीं हुई। मैंने सोचा था, कुछ रुपये मिल जायेंगे, तो पढ़ने की किताबें ले लूँगा। सो कुछ न मिला। राह-खर्च भी नहीं दिया। कहते हैं, कौन दूर है, पैदल चले जाओ।'
मुझे ऐसा क्रोध आया कि चलकर चौधरी को खून आड़े हाथों लूँ। वेश्याओं के लिए रुपये,सवारियाँ सब कुछ; पर बेचारे रामचन्द्र और उनके साथियों के लिए कुछ भी नहीं। जिन लोगों ने रात को आबदीजान पर दस-दस, बीस-बीस रुपये न्योछायर किये थे, उनके पास क्या इनके लिए दो-दो, चार-चार आने पैसे भी नहीं हैं? पिताजी ने भी तो आबदीजान को एक अशर्फी दी। देखूँ, इनके नाम पर क्या देते हैं। मैं दौड़ा हुआ पिताजी के पास गया। वह कहीं तफ़तीश पर जाने को तैयार खड़े थे। मुझे देखकर बोले-कहाँ घूम रहे हो? पढ़ने के वक्त तुम्हें घूमने की सूझती है?
मैंने कहा-गया था चौपाल। रामचन्द्र बिदा हो रहे हैं। उन्हें चौधरी साहब ने कुछ नहीं दिया।
'तो तुम्हें इसकी क्या फिक्र पड़ी है?'
'वह जायँगे कैसे? पास राह-खर्च भी तो नहीं है!'
'क्या कुछ खर्च भी नहीं दिया? यह चौधरी साहब की बेइंसाफी है।'