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114 : प्रेमचंद रचनावली-5
 

एक दिन रमानाथ वाचनालय में बैठा हुआ पत्र पढ़ रहा था कि एकाएक उसे रतन दिखाई पड़ गई। उसके अंदाज से मालूम होता था कि वह किसी को खोज रही है। बीसों आदमी बैठे पुस्तकें और पत्र पढ़ रहे थे। रमा की छाती धक-धक करने लगी। वह रतन की आंखें बचाकर सिर झुकाए हुए कमरे से निकल गया और पीछे के अंधेरे बरामदे में, जहां पुराने टूटे-फटे संदूक और कुर्सियां पड़ी हुई थीं, छिपा खड़ा रहा। रतन से मिलने और घर के समाचार पूछने के लिए उसकी आत्मा तड़प रही थी; पर मारे संकोच के सामने न आ सकता था। आह । कितनी बातें पूछने की थीं। पर उनमें मुख्य यही थी कि जालपा के विचार उसके विषय में क्या हैं। उसकी निष्ठुरता पर रोती तो नहीं है। उसकी उडता पर क्षुब्ध तो नहीं है? उसे धूर्त और बेईमान तो नहीं समझ रही है? दुबली तो नहीं हो गई है? और लोगों के क्या भाव हैं? क्या घर की तलाशी हुई? मुकदमा चला? ऐसी ही हजारों बातें जानने के लिए वह विकल हो रहा था; पर मुंह कैसे दिखाए । वह झांक-झांककर देखता रहा। जब रतन चली गई–मोटर चल दिया, तब उसकी जान में जान आई। उसी दिन से एक सप्ताह तक वह वाचनालय न गया। घर से निकला तक नहीं।

कभी-कभी पड़े-पड़े रमा का जी ऐसा घबड़ाना कि पुलिस में जाकर सारी कथा कह सुनाए। जो कुछ होना है, हो जाय। साल-दो साल की कैद इस् आजीवन कारावास से तो अच्छी ही है। फिर वह नए सिरे से जीवन-संग्राम में प्रवेश करेगा, हाथ-पांव बचाकर काम करेगा, अपनी चादर के बाहर जौ-भर भी पांव न फैलाएगा, लेकिन एक ही क्षण में हिम्मत टूट जाती।

इस प्रकार दो महीने और बीत गए। पूस का महीना आया। रमा के पास जाड़ों का कोई कपड़ा न था। घर से तो वह कोई चीज लाया ही न था, यहां भी कोई चीज बनवा न सका था। अब तक तो उसने धोती ओढ़कर किसी तरह राते काटीं, पर पूस के कड़कड़ाते जाड़े लिहाफ या कंबल के बगैर कैसे कटते। बेचारा रात-भर गठरी बना पड़ा रहता। जब बहुत सर्दी लगती, तो बिछावन ओढ़ लेता। देवीदीन ने उसे एक पुरानी दरी बिछाने को दे दी थी। उसके घर में शायद यहीं सबसे अच्छा बिछावन था। इस श्रेणी के लोग चाहे दस हजार के गहने पहन लें, शादीब्याह में दस हजार खर्च कर दें, पर बिछावन गूदड़ा ही रखेंगे। इस सड़ी हुई दरी से जोड़ा भला क्या जाता, पर कुछ न होने से अच्छा ही था। रमा संकोचवश देवीदीन से कुछ कह न सकता था और देवीदीन भी शायद इतना बड़ा ख़र्च न उठाना चाहता था, या संभव है इधर उसकी निगाह हो न जाती हो। जब दिन ढलने लगता, तो रमा रात के कष्ट की कल्पना से भयभीत हो उठता था, मानो काली बला दौड़ती चली आती हो। रात को बार-बार खिड़की खोलकर देखता कि सबेरा होने में कितनी कसर है।

एक दिन शाम को वह वाचनालय जा रहा था कि उसने देखा एक बड़ी कोठी के सामने हजारों कंगले जमा हैं। उसने सोचा-यह क्या बात है, क्यों इतने आदमी जमा हैं? भीड़ के अंदर घुसकर देखा, तो मालूम हुआ, सेठजी कंबलों का दान कर रहे हैं। कबन्न बहुत घटिया थे, पतले और हल्के; पर जनता एक पर एक टूटी पड़ती थी। रमा के मन में आग, एक कंबल ले लें। यहां मुझे कौन जानता है। अगर कोई जान भी जाय, तो क्या हरज? गरीब ब्राह्मण अगर दान का अधिकारी नहीं तो और कौन है। लेकिन एक ही क्षण में उसका आत्म-सम्मान जाग उठा। वह कुछ देर वहां खड़ी ताकता रहा, फिर आगे बढ़ा। उसके माथे पर तिलक देखकर मुनीमजी ने समझ लिया, यह बाह्मण है। इतने सारे कगलों में ब्राह्मणों की संख्या बहुत कम थी। ब्राह्मणों को