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116 : प्रेमचंद रचनावली-5
 

'अरे वही, जिसकी वह बड़ी लाल कोठी है।'

रमा कोई बहाना न कर सका। बोला-हां, मुनीमजी ने पिंड ही न छोड़ा। बड़ा धर्मात्मा जीव हैं।

देवीदीन ने मुस्कराकर कहा-बड़ा धर्मात्मा । उसी के थामे तो यह धरती थमी है, नहीं तो अब तक मिट गई होती !

रमानाथ-काम तो धर्मात्माओं ही के करता है, मन का हाल ईश्वर जाने। जो सारे दिन पूजापाठ और दान-व्रत में लगा रहे, उसे धर्मात्मा नहीं तो और क्या कहा जाय।

देवीदीन-उसे पापी कहना चाहिए; महापापी। दया तो उसके पास से होकर भी नहीं निकली। उसकी जूट की मिल है। मजूरों के साथ जितनी निर्दयता इसकी मिल में होती है, और कहीं नहीं होती। आदमियों को हंटरों से पिटवाता है, हंटरों से चर्बी-मिली घी बेचकर इसने लाखों कमा लिए। कोई नौकर एक मिनट की भी देर करे तो तुरंत तलब काट लेता है। अगर साल में दो-चार हजार दान न कर दे, तो पाप का धन पचे कैसे | धर्म-कर्म वाले ब्राह्मण तो उसके द्वार पर झांकते भी नहीं। तुम्हारे सिवा वहां कोई पंडित था?

रमा ने सिर हिलाया।

'कोई जाता ही नहीं। हां, लोभी-लंपट पहुंच जाते हैं। जितने पुजारी देखे, सबको पत्थर हीं पाया। पत्थर पूजते-पूजते इनके दिल भी पत्थर हो जाते हैं। इसके तीन तो बड़े-बड़े धरमशाले हैं, मुदा है पाखंडी। आदमी चाहे और कुछ न करे, मन में दया बनाए रखे। यही सौ धरम का एक धरम है।'

दिन की रक्खी हुई रोटियां खाकर जब रमा कंबल ओढ़कर लेटा, तो उसे बड़ी ग्लानि होने लगी। रिश्वत में उसने हजारों रुपये मारे थे; पर कभी एक क्षण के लिए भी उसे ग्लानि ने आई थी। रिश्वत बुद्धि से, कौशल से, पुरुषार्थ से मिलती है। दान पौरुषहीन, कर्महीन या पाखंडियों का आधार है। वह सोच रहा था-मैं अब इतना दीन हूँ कि भोजन और वस्त्र के लिए मुझे दान लेना पड़ता है। वह देनीदीन के घर दो महीने से पड़ा हुआ था, पर देवीदीन उसे भिक्षुक नहीं मेहमान समझता था। उसके मन में कभी दान का भाव आया ही न था। रमा के मन में ऐसा उद्वेग उठा कि इसी दम थाने में जाकर अपना सारा वृत्तांत कह सुनाए। यही न होगा, दो- तीन साल की सजा हो जाएगी, फिर तो यों प्राण सूली पर न टंगे रहेंगे। कहीं डूब ही क्यों न मरूं इस तरह जीने से फायदा ही क्या ! ने घर का हूँ न घाट का दूसरों को भार तो क्यों उठाऊंगा, अपने ही लिए दूसरों का मुंह ताकता हूं। इस जीवन से किसका उपकार हो रहा है? धिक्कार है। मेरे जीने को ।

रमा ने निश्चय किया, कल निःशंक होकर काम की टोह में निकलूंगा। जो कुछ होना है, हो।

छब्बीस

अभी रमा हाथ- मुंह धो रहा था कि देवीदीन प्राइमर लेकर आ पहुंचा और बोला-भैया, यह तुम्हारी अंगरेजी बड़ी विकट है। एस-आई-अर'सर' होता है, तो पी-आई-टी'पिट' क्यों हो