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गबन : 121
 


कि तुम ऊब जाओगे। जालपा तुम्हारे चरण धो-धो पिएगी, तुम्हारी इतनी सेवा करेगी कि जवान हो जाओगे।

देवीदीन ने हंसकर कहा-तब तो बुढ़िया डाह के मारे जल मरेगी। मानेगी नहीं, नहीं तो मेरा जी चाहता है कि हम दोनों यहां से अपना डेरा-डंडा लेकर चलते और वहीं अपनी सिरकी तानते। तुम लोगों के साथ जिंदगी के बाकी दिन आराम से कट जाते; मगर इस चुडैल से कलकत्ता न छोड़ा जायगा। तो बात पक्की हो गई न?

'हां, पक्की ही है।'

'दुकान खुले तो चलें, कपड़े लावें। आज ही सिलने को दे दें।'

देवीदीन के चले जाने के बाद रमा बड़ी देर तक आनंद-कल्पनाओं में मग्न बैठा रहा। जिन भावनाओं को उसने कभी मन में आश्रय न दिया था, जिनकी गहराई और विस्तार और उद्वेग से वह इतना भयभीत था कि उनमें फिसलकर डूब जाने के भय से चंचल मन को उधर भटकने भी न देता था, उसी अथाह और अछोर कल्पना-सागर में वह आज स्वच्छंद रूप से क्रीड़ा करने लगा। उसे अब एक नौका मिल गई थी। वह त्रिवेणी की सैर, वह अल्फ्रेड पार्क की बहार, वह खुसरो बाग का आनंद, वह मित्रों के जलसे, सब याद आ-आकर हृदय को गुदगुदाने लगे। रमेश उसे देखते ही गले लिपट जायेगे। मित्रगण पूड़ेंगे, कहां गए थे, यार? खूब सैर की? रतन उसकी खबर पाते ही दौड़ी आएगी और पूछेगी-तुम कहां ठहरे थे, बाबूजी? मैंने सारा कलकत्ता छान मारा। फिर जालपा की मान-प्रतिमा सामने आ खड़ी हुई।

सहसा देवीदीन ने आकर कहा-भैया, दस बज गए, चलो बाजार होते आवें।

रमा ने चौंककर पूछा--क्या दस बज गए?

देवीदीन-दसे नहीं, ग्यारह का अमल होगा।

रमा चलने को तैयार हुआ, लेकिन द्वार तक आकर रुक गया।

देवीदीन ने पूछा-'क्यों खड़े कैसे हो गए?'

तुम्हीं चले जाओ, मैं जाकर क्या करूंगा !'

'क्या डर रहे हो?'

'नहीं, डर नहीं रही हैं, मगर क्या फायदा?'

'मैं अकेले जाकर क्या करूगा । मुझे क्या मालूम, तुम्हें कौन कपड़ा पसंद है। चलकर अपनी पसंद से ले लो। वहीं दरजी को दे देंगे।'

'तुम जैसी कपड़ा चाहे ले लेना। मुझे सब पंसद है।'

'तुम्हें डर किस बात का है। पुलिस तुम्हारा कुछ नहीं करेगी। कोई तुम्हारी तरफ ताकेगा भी नहीं।'

'मैं डर नहीं रहा हूँ दादा। जाने की इच्छा नहीं है।'

'डर नहीं रहे हो, तो क्या कर रहे हो। कह रहा हूं कि कोई तुम्हें कुछ न कहेगा, इसका मेरा जिम्मा, मुदा तुम्हारी जान निकली जाती है।'

देवीदीन ने बहुत समझाया, आश्वासन दिया; पर रम जाने पर राजी न हुआ। वह डरने से कितना ही इंकार करे; पर उसकी हिम्मत घर से बाहर निकलने की न पड़ती थी। वह सोचता था, अगर किसी सिपाही ने पकड़ लिया, तो देवीदीन क्या करे लेगा। माना सिपाही से इसकी परिचय भी हो, तो यह आवश्यक नहीं कि वह सरकारी मामले में मैत्री का निर्वाह करे। यह