पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/१३५

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गबन : 135
 


करो। सो देख लेव, आप मानो चाहे न मानो, मैं तो एक सयाने को लाऊंगा। बंगाल के ओझे-सयाने मसहूर हैं।

वकील साहब ने मुंह फेर लिया। प्रेत-बाधा का वह हमेशा मजाक उड़ाया करते थे। कई ओझों को पीट चुके थे। उनका खयाल था कि यह प्रवंचना है, ढोंग है, लेकिन इस वक्त उनमें इतनी शक्ति भी न थी कि टीमल के इस प्रस्ताव का विरोध करते। मुंह फेर लिया।

महराज ने चाय लाकर कहा–सरकार, चाय लाया हूँ।

वकील साहब ने चाय के प्याले को क्षुधित नेत्रों से देखकर कहा-ले जाओ, अब न पीऊंगा। उन्हें मालूम होगी, तो दुखी होंगी। क्यों महराज, जब से मैं आया हूँ मेरा चेहरा कुछ हरा हुआ है?

महराज ने टीमल की ओर देखा। वह हमेशा दूसरों की राय देखकर राय दिया करते थे। खुद सोचने की शक्ति उनमें न थी। अगर टीमल ने कहा है, आप अच्छे हो रहे हैं, तो वह भी इसका समर्थन करेंगे। टीमल ने इसके विरुद्ध कहा है, तो उन्हें भी इसके विरुद्ध ही कहना चाहिए। टीमल ने उनके असमंजस को भांपकर कहा-हरा क्यों नहीं हुआ है, हां, जितना होना चाहिए उतना नहीं हुआ।

महराज बोले-हां, कुछ हरा जरूर हुआ है, मुदा बहत कम।

वकील साहब ने कुछ जवाब नहीं दिया। दो-चार वाक्य बोलने के बाद वह शिथिल हो जाते थे और दस-पांच मिनट शांत अचेत पड़े रहते थे। कदाचित् उन्हें अपनी दशा का यथार्थ ज्ञान हो चुका था। उसके मुख पर, बुद्धि पर, मस्तिष्क पर मृत्यु की छाया पड़ने लगी थीं। अगर कुछ आशा थी, तो इतनी ही कि शायद मन की दुर्बलता से उन्हें अपनी दशा इतनी हीन मालूम होती हो। उनका दम अब पहले से ज्यादा फूलने लगा था। कभी-कभी तो ऊपर की सांस ऊपर ही रह जाती थी। जान पड़ता था, बस अब प्राण निकला। भीषण प्राण-वेदना होने लगती थी। कौन जाने, कब यही अवरोध एक क्षण और बढ़कर जीवन का अंत कर दे। सामने उद्यान में चांदनी कुहरे की चादर ओढे, जमीन पर पड़ी सिसक रही थी। फूल और पौधे मलिन मुख, सिर झुकाए, आशा और भय से विकल हो-होकर मानो उसके वक्ष पर हाथ रखते थे, उसकी शीतल देह को स्पर्श करते थे और आंसू की दो बूदें गिराकर फिर उसी भांति देखने लगते थे।

सहसा वकील साहब ने आंखें खोलीं। आंखों के दोनों कोनों में आंसू की बूदें मचल रही थीं। क्षीण स्वर में बोले-टीमल । क्या सिद्धू आए थे?

फिर इस प्रश्न परआप ही लज्जित हो मुस्कराते हुए बोले-मुझे ऐसा मालूम हुआ, जैसे सिद्धू आए हों।

फिर गहरी सांस लेकर चुप हो गए, और आंखें बंद कर ली। सिद्ध उस बेटे का नाम था, जो जवान होकर मर गया था। इस समय वकील साहब को बराबर उसी की याद आ रही थी। कभी उसका बालपन सामने आ जाता, कभी उसका मरना आगे दिखाई देने लगता-कितने स्पष्ट, कितने सजीव चित्र थे। उनकी स्मृति कभी इतनी मूर्तिमान, इतनी चित्रमय न थी।

कई मिनट के बाद उन्होंने फिर आंखें खोलीं और इधर-उधर खोई हुई आंखों से देखा।